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एक दिन उसके कहा
भक्ति के लिए उमड़ पड़ती है ।
गिरजाघर जाता झार को खुशी होती थी कि उस गिरजाघर में हर रविवार को भीड़
उमड़ पड़ती थी ।
पादरी ने कहा विचारणीय है ।
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फादर ! हमारे देश की जनता कितनी धर्मालु है | ईश्वर
अनेक जन आते हैं, मगर उनमें ईश्वर भक्त कितने हैं, यह
पीटर ने आश्चर्य से पूछा- मैं आपके इस कथन का मतलब नहीं समझा ।
पादरी ने कहा- इस बात का रहस्य जानना है तो इस बार आप यह घोषणा करवा दे कि अगले रविवार आप नहीं आऐंगे ।
केवल कहना हैं, आना तो आपको है ही । “पर मैं आ रहा हूँ ।"
पीटर ठीक से समझ नहीं सका पर पादरी के कहने पर घोषणा करवा दी गई । अगले रविवार जब वह आया तो देखा कि वहाँ केवल दस ग्यारह व्यक्ति ही है । पादरी के चेहरे पर मुस्कराहट थी । पीटर महान समझ गया कि वे व्यक्ति धर्म के प्रति लगन के कारण नहीं, अपितु पीटर की नजरों में आने के लिए ही आते थे । उन्हें भला ईश्वर से क्या लेना-देना । लोगों की इस वृत्ति पर पीटर को बड़ी वितृष्णा हुई । उसने सोचा, काश मैंने गिरजा घर निर्माण करने के बदले लोगों में धर्म की वृत्ति का रोपण किया होता ।
इस तरह हम देखते हैं कि धर्म के प्रति रूझान रखना कई निमित्तों से होता है, पर वास्तव में धर्म के प्रति श्रद्धावान होना कुछ लोगों को ही रास आता है । जो धर्म से जुड़ जाते हैं, वे अपनी रुझान में वृत्ति में धर्म को प्रतिस्थापित कर लेते है, उनके प्रत्येक व्यवहार में धर्म ही धर्म प्रकट होता है । वे धर्म-संदर्भ में सहिष्णु होते हैं । वास्तव में वे ही अनेकांतवादी होते हैं । ऐसे ही धर्म से परमार्थ होता है । जो पराई पीर को जानता है, वही धर्म के सार को जानता है । जो धर्म का सार जानता है वह प्रशस्ति से भरे पथ का यात्री होता है । वही धर्म की पूर्णता पा सकता है ।
अध्यात्म के झरोखे से
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