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आध्यात्मिक साधना के भव्य भवन में प्रवेश का द्वार सम्यकता है । आत्मा में सम्यक्त्व उदय होता है तो कई प्रकार के सात्त्विकता से परिपूर्ण सद्भाव की उत्पत्ति हो जाती है | मोहनीय कर्म के प्रभाव से धर्म जैसा तत्त्व भी मिथ्या दृष्टि को रूचता नहीं है। मोहनीय कर्म के शिथिल होते ही जीव की धर्म में रुचि उत्पन्न हो जाती है । धर्म के और साधना के क्षेत्र में सम्यक् ही आदि चरण है, उसके बिना सब शून्य है । धर्म ही यथार्थ में सम्पोषित है सम्यक्त्व से । सम्यक्त्व के बिना धर्म टिकता नहीं है । धर्म का मूल है सम्यक्दर्शन । धर्म वह है जो प्रेरणा को अवसर दे ।
जो धर्म से जुड़ता है, वह निश्चय ही जीवन को संवार देता है । धर्म अवश्य ही उत्स का कारण हो सकता है। इसे मैं इस प्रकार व्यक्त करना चाहता हूँ -
धर्म को जिसने पाया, जीवन उसने दीपाया धर्म से विमुख हुआ जो उसका हर पल मुरझाया धर्म को जिसने उत्कृष्टता प्रदान की जीवन में
धर्म में ही हर प्रश्न का समाधान है समाया ।
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धर्म का अवलम्ब निश्चय रूप से स्थिरता, संतुलन और दृढता का कारणभूत है । धर्म मार्ग से पतित होने के बाद पुनः धर्म मार्ग पर आरूढ़ होना स्थितीकरण है । धर्म कथादि के द्वारा धर्म को ख्याति प्रदान करना, उसे विस्तार देना धर्म प्रभावना है । प्रभावना का मतलब है, इस भांति जियो कि तुम्हारे जीने से धर्म की प्रभावना हो इस ढंग से उठो-बैठो कि तुम्हारे उठने-बैठने से धर्म बढ़े, धर्म के दो रूप है तत्त्व-ज्ञान और नैतिक आचार | धर्म का भूषण वैराग्य है वैभव नहीं । धर्म से ही मनुष्य मन को दृढ़ता मिलती है । धर्म होगा, शोक सभी को दूर करने वाला है । धर्म ही के द्वारा प्रशांति की अभिप्राप्ति होती है ।
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प्रशान्ति का आधार : धर्म - 97