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एक बौद्ध भिक्षु कम्बोज सम्राट की राज्यसभा में आया, अपने को विद्वान बताया । उसने अपने को गूढ शास्त्रों और रहस्यों का ज्ञाता बताया, साथ ही धर्माचार्य बनाने की बात जोर देकर कही। सम्राट ने विनम्रतापूर्वक कहा - कृपा कर आप एक बार धर्म ग्रन्थ खंखोल ले । यह सुनकर भिक्षु रोष से भर उठा, फिर भी धर्माध्ययन की आवृत्ति में जुट गया । एक वर्ष बाद पुनः सभा से समक्ष उपस्थित हुआ । सम्राट ने पुनः अपनी बात कही । एक बार पुनः धर्म ग्रन्थों के पारायण का अनुरोध किया । भिक्षु इस दंश से पीड़ित हुआ । फिर भी पुनः तन्मयता से स्वाध्याय में जुट गया। इस बार उसे अपूर्व आनंद मिला । शब्दों के नये-नये अर्थो से वह सम्पन्न हुआ । वह नित्य ही स्वाध्याय में निमग्न रहता । ___ वर्ष बीता तो भिक्षु राज्यसभा में नहीं आया । स्वयं सम्राट इस बार नदी तट पर
आया और कहा - भिक्षुराज ! पधारिये, आप धर्माचार्य पद को सुशोभित कीजिये, पर भिक्षु निमग्न रहा, उसकी धर्माचार्य बनने की महत्त्वाकांक्षा निर्मूल हो चुकी थी । पांडित्य का अहंकार शून्य हो चुका था, भिक्षु आत्मज्ञान से, अध्यात्म से समृद्ध हो गया था। इससे स्पष्ट होता है कि ज्ञान से, सतत स्वाध्याय से जीवन खिल उठता है । स्वाध्याय जीवन की आध्यात्मिक उन्नति के लिए बड़ा ही उत्तम स्रोत है । भगवान महावीर ने इसीलिए स्वाध्याय को आभ्यंतर तप में स्थान दिया । सम्यक् प्रकार से किया गया अध्ययन ही श्रेष्ठ ध्यान में परिणत होता है।
भगवान महावीर स्वाध्याय में सतत निमग्न रहे । वे भोजन का त्याग कर सकते थे पर स्वाध्याय का नहीं । उन्होंने श्रमण-श्रमणियों को यह निर्देश दिया कि चाहे जितनी लम्बी तपस्या करे पर स्वाध्याय न छोड़ें। मन का पोषण स्वाध्याय से होता है । स्वाध्याय अचूक साधना है । स्वाध्याय से भीतर स्थित गुणों की अभिवृद्धि होती है।
यहाँ यह समझ लेना चाहिए कि स्वाध्याय तोता रटंत नहीं है । इसमें जो पढ़ा या जाना जाता है उसे जीवन में उतारने की, आत्मसात करने की भी भावना बलवती रहती है । अगर पठित ज्ञान को जीवन से न जोड़ा जाए तो वह ज्ञान खोखला ही रहता है।
आध्यात्मिक विकास की अभिक्रियाएँ - 85
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