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चक्षु से ग्रहण किये शब्दों को अंतर में उतार कर उन्हें जीवन के व्यवहार से जोड़ना ही स्वाध्याय का अभीष्ट है।
ज्ञान दर्पण है, यह मनुष्य को दर्प से दूर करता है । राग-द्वेष से जो परे करे, वही ज्ञान उत्तमोत्तम है । सम्यक्चरित्र से उदीयमान तथा सम्यक् ज्ञान से प्रकाशमान सूर्य से ही आत्मा का व लोक का कल्याण होता है । ज्ञान ही आत्मा को विषय पंक से दूर करता है. जो ज्ञान, चरित्र के रूप में परिवर्तित न हो, उसका कोई महत्त्व नहीं है ।
वीतराग विज्ञान, ने आध्यात्मिक विकास का व्यवस्थित क्रम प्रस्तुत किया है | जानों, श्रद्धा करो और जीवन के आचरण में लाओ। सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन और सम्यक् चारित्र को रत्नत्रय की संज्ञा दी है । रत्नत्रय का आलोक गहन निराशा के अंधेरे को चीर कर उजाला लाता है। आध्यात्मिक जीवन की पूर्णता के लिए रत्नत्रय का आराधन अनिवार्य है।
रत्नत्रय का समाधरान, वासना को कषायों एवं राग द्वेष से निवृत्ति देता है और यह निवृत्ति आध्यात्मिक दृष्टि से महामंगल की संरचना करती है। मनुष्य का मन दिव्य हो उठता है | वह पावन-मंदिर बन जाता है । अंतर-जागृति से जीवन का क्षण-क्षण आलोकित हो उठता है । उस स्थिति में मोक्ष का मार्ग प्रशस्त हो जाता है । जीवन के अज्ञानजन्य दुःखों से मुक्ति के लिए इस प्रशस्त पथ की यात्रा अत्यन्त आवश्यक है । संशय, विपर्यय से मुक्ति के लिए यह पथ प्रशस्त है, श्रेष्ठ है ।
86 - अध्यात्म के झरोखे से
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