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आस्था सम्यग् दर्शन का लक्षण है । सभी प्राणियों के प्रति तुल्लताबोध अर्थात् सहानुभूति 'सम' है । आत्मा की ओर गति होना 'संवेग' है । उदासीनता, वैराग्य, अनासक्ति ‘निर्वेद है | दुःख से पीड़ित दूसरे व्यक्ति को देखकर, तदनुकूल अनुभूति उत्पन्न होना अनुकंपा है तो पुण्य पाप, कर्म, स्वर्ग, नरक और आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करना आस्था है ।
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सम्यग् दर्शन की उत्पत्ति निसर्गज भी होती है तथा अधिगमज भी होती है । इसे हम स्वभाव एवं परोपदेश कह सकते है । सम्यग् दर्शन की उपलब्धि होने पर व्यक्ति तीनों प्रकार की मूढ़ताओं एवं आठो प्रकार के मदों से विरत हो कर चलता है । कषायपुष्टि में नहीं अपितु समत्व की साधना में उसका पुरुषार्थ प्रयुक्त होता है । उसके आध्यत्मिक विकास का क्रम उत्तरोत्तर विकास पाता जाता है ।
सम्यग् दर्शन उपलब्ध होने का अर्थ दृष्टि संपन्नता है । आचार्य कुंदकुंद के अनुसार सम्यग् दृष्टि वह है जो छह द्रव्य, नव पदार्थ, पांच अस्तिकाय और सप्ततत्त्वों में यथार्थ श्रद्धा करे | मोक्ख पाहुड में उल्लेख है हिंसा रहित धर्म, अठारह दोष रहित देव, निर्ग्रन्थ गुरु और अर्हत् प्रवचन में जो श्रद्धा है वही सम्यग् दर्शन है । उत्तराध्यायसूत्र में नव पदार्थों में दृढ निश्चय को सम्यग् दर्शन कहा है । कुल मिलाकर सम्यग् दर्शन जीवन जीने की कला का केन्द्रीय बिन्दु है । इसके आधार पर आध्यात्मिक व्यक्तित्व का निर्माण होता है ।
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इसी तरह आध्यात्मिक विकास क्रम में सम्यग् ज्ञान का विकास आवश्यक माना गया है । आगम कथन है -
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नाणस्स सव्वस्स पगासणाए, अन्नाण मोहस्स विवज्जणाए ।
रागस्स दोसस्स च संखएणं, एगन्त सोक्खं समुवेई मोक्खं ॥ सम्पूर्ण, ज्ञान के प्रकाशन से अज्ञान और मोह के परिहार से, रागद्वेष के पूर्ण क्षय से जीव एकान्त सुखरूप मोक्ष को प्राप्त करता है । आत्मा के दर्पण में, अपने आपको देखना चाहिए, और यह होगा ज्ञान के प्रकाश से ! एक और कथन है
आध्यात्मिक विकास की अभिक्रियाएँ
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