SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 73
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आत्मा के सम्पूर्ण अवलम्बन में ही रहना धर्म बुद्धि है । आत्मा ही सब से बड़ी शरण है। धर्म शुद्ध हृदय में निवास करता है । निष्पाप सरल और शान्त हृदय में धर्म वास करता है। एक गृहस्थित को इस तथ्य का बोध एक संन्यासी ने बड़े ही अच्छे ढंग से दिया-संन्यासी भिक्षार्थ गये । पहुंचे तो देखा कि गृहस्वामिनी अपने पति से झगड़ रही है, अपशब्द कह रही है । संन्यासी उस द्वार से लौट लगे, पर उसी समय पति के प्रस्थान कर जाने पर गृह स्वामिनी ने लौटते हुए संन्यासी से कहा- संत प्रवर ! आज घर में कलह होने से मैं कुछ भी बना नहीं पाई । कृपा कर कल अवश्य पधारें, पर कृपा कर के मुझे आज कुछ उपदेश तो सुना जाइये । संन्यासी ने कहा - देवी ! मैं उपदेश भी कल ही सुनाऊंगा । दूसरे दिन संन्यासी भिक्षा लेने आया। महिला ने खीर बनाई थी । महिला श्रद्धा से भर कर खीर की भिक्षा देने आई । संन्यासी से कमण्डल बढ़ाया तो महिला यह देखकर चौंक पड़ी कि कमण्डल में तो मिट्टी पड़ी हुई है । वह रूक गई । संन्यासी ने कहा - देवी ! डालो खीर ! महिला पेशोपश में पड़ गई । बोली - संत प्रवर ! इसमें तो गंदी मिट्टी पड़ी है, भला उस पर खीर कैसे डाली जा सकती है ? इस पर संन्यासी ने कहा - जैसे मिट्टी की गंदगी पर खीर नहीं डाली जा सकती वैसे ही क्रोध, ईर्ष्या से भरे हृदय पर पवित्र उपदेश नहीं उड़ेला जा सकता। वह महिला समझ गई कि उसके द्वारा पति से झगड़ा व अपशब्द से उसका मन गंदा हो गया है और उस पर धर्म का बोध नहीं ठहर सकता । महिला ने संन्यासी के समक्ष उसी समय हृदय को पवित्र बनाये रखने का संकल्प किया । संत ने इस पर महिला को धर्म बोध दिया। सामान्यतः आचार और व्यवहारों की संविधा के पालन को धर्म कहा जाता है, पर मात्र इन्हें धर्म मान लेना भ्रान्ति है। धर्म की आत्मा विवेकपूर्ण जीवन दृष्टि में है। सद्गुण का आचरण धर्म है | धर्म की आत्मा विवेकपूर्ण जीवनदृष्टि में है । पाश्चात्य विचारक ब्रेडले के अनुसार - 'जो धर्म अनैतिकता का सहगामी है, वस्तुतः वह धर्म 72 - अध्यात्म के झरोखे से For Private And Personal Use Only
SR No.008701
Book TitleAdhyatma Ke Zarokhe Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year2003
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Spiritual
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy