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धर्म को आत्म-पवित्रता से ही कुछ लोग ही जोड़ पाते हैं । लोग, धर्म में प्रवृत्ति करते हैं पर उसके पीछे लोगों की प्रदर्शन वृत्ति प्रमुख होती है । वे चाहते है कि अन्य लोग यह जाने कि वे धर्म की क्रिया में निमग्न हैं । जब वे धर्म की क्रियाओं में संलग्न होते हैं तो मन के घोड़े कहीं और दौड़ने में लगे रहते हैं । वे जिन क्षेत्रों में दौड़ते हैं बहुधा वह धर्म का क्षेत्र नहीं होता है । प्रकाश की गति से भी तेज गति से दौड़ता है मन । चेतना-शक्ति से ही हमारा मन, सारी इन्द्रियां संचालित होती है ये चेतना धर्म की हो, जरा भी जरूरी नहीं है। आस्था का दीप जिस स्नेह से प्रज्वलित होता है उसमें धर्म की चेतना का आलोक ही जरूरी नहीं । धर्म आज शोभा मात्र बन गया है।
श्रीमद् राजचन्द्र का कथन है - कलिकाल में दुर्लभता बढ़ी है । अनेक प्रकार के सुखाभास के प्रयत्न हो रहे हैं । धर्म मर्यादा का तिरस्कार होने लगा है । धर्म द्वारा भी मोक्ष साधने के पुरुषार्थ की विलुप्ति हो गई है । आत्मा अनंत त्यागी है । आत्मा सब कुछ त्याग कर धर्मध्यान चाहती है। जबकि मन कहता है कि पहले सुख भोग लो। धर्म वस्तु का स्वभाव है, समता भाव धर्म है, पर धर्म के काम में चित्त कौन लगाता है | अभिमानी पुरुष अपने धर्म का नाश ही कर डालता है। धर्म में जो उच्चता दर्शाता है, दूसरों को तुच्छ समझता है वह मान है । धर्म वह है, हमें जो आत्मज्ञान दिलाता है।
धर्म चैतन्य है, धर्म अनन्य है, धर्म में उत्फुल्लता समाविष्ट है । किन्तु जो इन सबसे अनभिज्ञ है वह विवश है, वह हताश है, वह है विडम्बना का प्रतीक । अनभिज्ञता ही वास्तव में विडम्बना है, विवशता है। इसीलिए तो धर्म के जागरण का महत्त्व है । उसीका उद्बोध संत देते हैं | धर्म पूंजी है, आज धर्म को अधर्म के अर्थ में लिया जा रहा है । धर्म गति का माध्यम है, रूकने से वह वंचित है । आज धर्म के मूल को ही भुला दिया गया है । धर्म व्यक्ति को मृत्युंजयता की ओर ले जा रहा है। हर धर्म का आदर्श है एक दूसरे से सहयोग । धर्म, आत्मा से साक्षात्कार ही ओर से ले जाता है। आत्मा की प्रत्यक्षता से अनंत शक्ति का मान हो जाता है।
धर्म : एक आदर्श जीवन शैली - 71
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