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धर्म : एक आदर्श जीवन शैली
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ध
कर्म में स्थित होना सहज नहीं है। लोग किसी धर्म परंपरा में, विश्वासु परिवार में जन्म लेकर सोचते हैं कि वह उनका धर्म है, वे अधिकारपूर्वक उस धर्मपरंपरा के घटक बन गये हैं। पर आवश्यक नहीं कि यही सत्य हो, यही तथ्य हो । उनका आचरण उस धर्म के विपरीत भी हो सकता है । जीवन में संतुलन होते हैं तो असंतुलन भी हो सकते हैं। विशुद्ध आचरण ही धर्म के मार्ग को बनाता है, प्रशस्त करता है, धर्म की रूझान है तो धर्म से विमुखता के कारण भी, आकर्षण भी प्रबल है । मनुष्य मात्र की मनोवृत्ति चंचल है । जो धर्म को त्याग देता है और जो दुष्प्रवृत्ति के वश होता है, धर्म की उपेक्षा वही करने लगता है । जो धर्म को एक पक्षीय मानता है, वह भी धर्म के मूल भाव से पृथक हो जाता है । लब्भंति विमला भोए, लब्भंति सुर संपया । लब्भंति पुत्तमित्तं च, एगो धम्मो न लब्भई ॥
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आगम का यह उक्त कथन कितना सटीक है • सांसारिक विपुल भोगों को आसानी से पाया जा सकता है, स्वर्गीय संपदा भी उपलब्ध हो सकती है । पुत्र, मित्रों का संयोग भी सुलभ है, लेकिन धर्मोपलब्धि दुर्लभ है ।
70 अध्यात्म के झरोखे से
कई लोग, धर्म के निर्वाह में अहं के पोषण को ही अधिक महत्त्व देते हैं धर्म की ओट में कई लोग सामाजिक दायित्वों से जी चुराते हैं ।
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