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अर्जित उपादान है इसे किसी से दान में नहीं पाया जा सकता है। केवल इसकी विधि आदि ही अन्य से ज्ञात की जा सकती है ।
ध्यान में स्थान का विशेष महत्त्व होता है । ध्यान शतक में कहा गया है - मुनि सदा युवती, पशु, नपुंसक व कुशील व्यक्तियों से रहित विजन स्थान में रहे | किन्तु जिन मुनियों ने योग भावनाओं का अभ्यास कर लिया है और जो उनमें स्थिर हो चुके है तथा जो ध्यान में अप्रकम्प मन वाले है, उनके लिये जनाकीर्ण ग्राम और शून्य अरण्य में कोई भेद नहीं है । जहाँ भी मन, वचन, काया के योगों का समाधान बना रहे और जो जीवों के संगठन से रहित हो वही ध्यान के लिये श्रेष्ठ ध्यान स्थल है ।
ध्यान में समय का भी विशेष महत्त्व है । ध्यान शब्द के अनुसार ध्यान के लिये कल ही श्रेष्ठ है जिसमें मन वचन काया के योगों का समाधान बना रहे । ध्यान करने वाले के लिये दिन रात या वेला का नियमन नहीं है ।
ध्यान के योग्य आसन के बारे में कथन है कि जिस देहावस्था का अभ्यास हो चुका है और जो ध्यान में बाधा डालने वाली नहीं है, उसीमें ध्यान करें। खड़े होकर, बैठकर या सोकर कैसे भी ध्यान करना संभव है ।
आगमों में ध्यान के लिए देशकाल आसन का कोई नियम नहीं है । जैसे योगों का समाधान हो वैसे ही प्रयत्न करना चाहिए ।
ध्यान में कई निषेध है पर वे ध्यान के एकाग्रचित्ति को बढ़ाने के निमित्त ही है । ध्यान निपट एकाकी विजय है अतः इसके विरोध में कोई भी बगावत का झण्डा नहीं उठाता है । उसमें किसी भी प्रकार के असन्तोष का सवाल नहीं, उसे अवसर नहीं । ध्यान अपार प्रशांति प्रदान करता है । ध्यान के आलोक में समग्र जीवन के समाधान स्पष्ट नजर आते हैं। ध्यान के लोक में शोक को कोई स्थान नहीं । यह असीम आनन्द से सराबोर कर देता है ।
ध्यान के चार भेद है आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान । आर्त ध्यान व रौद्रध्यान अशुभ एवं त्याज्य है । वे भव भ्रमण को बढ़ाने वाले है । धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान शुभ है, सुगति के कारण माने गए है । इष्ट का वियोग,
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चेतना की सर्वोच्च अकम्प अवस्था : ध्यान
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