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हो जाती है और यह स्थिरता ही ध्यान का चरम होती है। ध्यान का यही मर्म है, यही स्वरूप है और यही है ध्यान की संविधि ।
ध्यान ज़िन्दगी के काफिले को दिशा देता है, आगे बढ़ाता है । 'ध्यान की स्थिरता गति में एकरूपता लाती है। सारी उच्छंखलताओं पर ध्यान विराम लगाता है। ध्यान मन में स्थित सभी प्रश्नों का योग्य समाधान देता है । ध्यान ज्ञान में भी अभिवृद्धि करता है । ध्यान योग्य व अयोग्य की परख करने का ज्ञान देता है। ध्यान प्रत्येक व्यक्ति को एक अतिरिक्त सजगता देता है । ध्यान वह अभिज्ञान है जो अन्तर के अध्यात्म के बीज अंकुरित करता है । ध्यान से अन्तराय क्षीण होता है, उससे शक्ति व धृति असीम हो जाती है | मोह क्षीण होता है तो कषाय चेतना समाप्त हो जाती है।
ध्यान एक परिपूर्ण साधना है। ध्यान की प्रथम भूमिका कायोत्सर्ग अर्थात् कायिक ध्यान है। फिर सूक्ष्म श्वास अर्थात् आनापान ध्यान आता है । इसके बाद आता है वाचिक ध्यान यानि मौन । ध्यान में होने वाले सुखद व दुःखद संवेदनाओं से राग द्वेष न उपजे, जो ध्यान के अन्तराल में अनुप्रेक्षा का अभ्यास किया जाता है।
ध्यान एक आलोक से सम्पर्क करता है । यह उत्स प्रदान करता है । ध्यान अन्तर के प्रति विशिष्ट आकर्षण जगाता है । ध्यान मन की टूटन को जुड़न का आयाम देता है । ध्यान मूलतः अन्त योग है । एक ऐसी यात्रा जिसमें भटकन नहीं स्थिरता है | ध्यान अन्तः आयोजन है | इस आयोजन से सारी दिव्यता एक आकार में सिमटती है । ध्यान अपूर्वता सौंपता है । ध्यान उच्चस्य स्थापिति देता है । ध्यान गहराई सौंपता है । ध्यान नव आयाम देता है । ध्यान के बल पर सारे भटकाव समाप्त किये जा सकते हैं । __ ध्यान एक ऐसी संविधा है, जिसे जो चाहे, जब चाहे स्वीकार कर सकता है। इसके लिये किसी धन की जरूरत नहीं होती है। पर एक शर्त इसमें अवश्य होती है कि जो ध्यान से जुड़ना चाहता है उसमें उसे स्वयं ही प्रवृत्तः होना होता है। किसी अन्य के माध्यम से या प्रतिनिधित्व से ध्यान को जोड़ना संभव नहीं है | ध्यान स्व 58 - अध्यात्म के झरोखे से
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