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आन्तरिक प्रयत्न अधिक होते थे। वे पंक्तियां साधक को ध्यान में अग्रसर करने में मदद पहुँचाती थी। कुछ पहेलियां यों है -
नाक सीधा क्यों है ? आंखे दो क्यों है ?
आंखें समानान्तर में क्यों ? ध्यान का अर्थ :
ध्यान का सीधा अर्थ है सजगता । भगवान महावीर ने उसे अप्रमाद कहा, अमूर्छा कहा है । ध्यान-चित्त की वह निर्मल अवस्था है जहाँ राग और द्वेष को अवकाश नहीं । समता की स्थिति अथवा शुद्धोपयोग ध्यान है |
ध्यान प्रक्रिया से अन्तर्यात्रा सुलभ होती है । चित्त ध्येय में लीन बनता है, 'मन का केवल ध्येयनिष्ठ बनना या विलीन हो जाना ध्यान नहीं है। शरीर और वचन की भी एकरूपता आवश्यक है।
ध्यान अन्तरंग स्थिति है 'वह चेतना की सर्वोच्च अकम्प अवस्था है । इस अवस्था में हमारे भीतर का अवास्तविक प्रकंपित हो जाता है और मूल सुरक्षित रहता है । 'इच्छा शरीर, वासना शरीर तथा संस्कार शरीर रूप जो अंतश्चित्त है - उसका परिमार्जन ध्यान से ही संभव हो सकता है। ध्यान अनियंत्रित इच्छाओं पर अंकुश लगाकर दैनिक जीवन को सुव्यवस्थित करता है । आहार, विहार तथा मौन संबंधी अतृप्तियों को भीतर से तृप्त करता है 'व्यक्ति अक्षुब्ध बन जाता है और उसके अंतःस्थल में विवेक का झरना प्रवाहित हो जाता है | धीरे-धीरे निष्कषाय चेतना के धरातल पर सहज शांति, संयम और आनन्द के फूल खिल उठते है।
ध्यान का परिणाम है घर लौट आना। यह घर स्थूल घर नहीं है। यह घर है वह सूक्ष्म आवास जहा आत्मा का वास रहता है। ध्यान सारे विस्तार से समेट कर एक बिन्दु पर स्थापित करता है । वह बिन्दु वह केन्द्र फिर सारे कलापों का संचालन करता है। उस संचालन की अवस्था में सारी उहापोह सूक्ष्म हो जाती है. एक स्थिरता व्याप्त
चेतना की सर्वोच्च अकम्प अवस्था : ध्यान - 57
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