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योग भी कहा जाता है । भद्रबाहु स्वामी ने महाप्राण ध्यान की साधना की थी। यह ध्यान बारह वर्षो में सिद्ध होता है।
जैन परम्परा में महाप्राण ध्यान प्रचलित रहा है। यह ध्यान प्राणायाम के साथ ही किया जाता है।
"पासनाहचरिय' में ध्यान संबंधी कुछ गाथाएं उद्धृत हैं। उनमें ध्यान की प्रक्रिया बताई है । एक गाथा का आशय यह है • पर्यंक आसन मन, वचन और शरीर की चेष्टा का निरोध नासाग्र पर दृष्टि तथा श्वासउश्वास का मंदीकरण करने वाला ध्याता होता है। __ जैन साधकों की ध्यान पद्धतियों में चलते-चलते ध्यान करना एक पद्धति है। उनकी मान्यता है कि लम्बे रास्तों में चलकर प्रकृति के आनन्द को लूटना-ध्यान की
ओर गति है. भिन्न भिन्न जैन साधकों से वार्तालाप करना भी ध्यान की ओर जाना है। ईसा की सातवीं-आठवीं शताब्दी मे चीन में जैन साधक दूर-दूर तक सत्य की खोज में जाते है और जहाँ सुरम्य स्थल, पहाड़ आदि आता वही रुक जाते है । ध्यान की विभिन्न प्रक्रियाओं में तल्लीन हो रह जाते ।
जैन परंपरा में बैठकर ध्यान करने की पुष्ट परंपरा मिलती है । बैठना शरीर से नहीं मन से भी होना चाहिए। तनावमुक्त शरीर, मिताहार, एकान्त स्थान पद्मासन, एकाग्रता, मन की शून्यावस्था इस बैठने के कुछ पक्ष है । डोजन नामक एक जैन साधक का तो कथन है - sitting is the gateway to truth to total liberation.
प्राचीन समय में जैन साधक हजारों मील घूम सच्चे गुरु की खोज करते थे। गुरु तथा इन साधकों के बीच हुए प्रश्नोत्तरों को संकलित किया गया । गुरुओं की ज्ञानगरिमा तथा साधकों की गंभीर जिज्ञासाओं ने एक सुन्दर साहित्य क. सृजन कर डाला । वे चीनी भाषा में 'कुंग अन' तथा जापानी भाषा में 'कोन' कहलाते है।
'कोन' का सामान्य अर्थ है - पहेली। जो भी साधक ध्यान करना चाहता था उसे ऐसी पहेलियों से जूझना पड़ता था, 'इनमें बौद्धिक व्यायाम कम और 56 - अध्यात्म के झरोखे से
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