________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
विचारशून्यता के महासागर में विलीन हो जाता है । विचारशून्यता की प्रक्रिया कायोत्सर्ग के अन्तर्गत भी की जा सकती है। इसमें जरूरी नहीं कि साधक विचारों का अवरोध करे या उन्हें दबाये रखे, जरूरी इतना ही है कि वह साक्षीभूत हो जाये या उनमें उसका दृष्टापन का जो भाव है उसे हटा ले । देह से तादात्मीकरण धारणा स्थिति में टूट जाता है । मन का विचारमय क्रिया-प्रतिक्रियामय रूप ध्यान की स्थिति 'में मिटने लगता है । साक्षी की भूमिका जितनी तीव्र होने जाती है उतने विचार विलीन हो जाते हैं । विचारशून्यता की यह अवस्था शुद्ध चैतन्यरूपी है |
विचारशून्यता के साथ ही मन का अचेतन या अवचेतन के नाम से जाना जाने वाला अंश चेतना के प्रकाश में आता है। यह अंश ही सारे शरीर का नियन्त्रक होता है । शरीर के साथ तादात्म्य कम होता जाता है तो दूसरी ओर उस पर नियंत्रण भी बढ़ता जाता है । देह की हर क्रिया प्रतिक्रिया प्रतीत होने लगती है। और उसकी प्रतीति के साथ ही इच्छा द्वारा उसका नियंत्रण भी संभव होता जाता है। देह के तमाम संदर्भ कट जाते हैं | जैविकीय मूल प्रेरणायें (Incentives) विलीन हो जाती है । यह स्थिति निरावरण शुद्ध चैतन्य की स्वस्वरूपानुभूति की स्थिति होती है । जहाँ इच्छाओं, वासनाओं, भावनाओं, देह मन की समस्त क्रिया-प्रति क्रियाओं का निरसन हो जाता है । शरीर और मन के आवरण गिर जाते हैं, रह जाती है निराकार और अनन्त चेतना। यह चेतना वैश्विक चेतना से संलग्न हो जाती है। नर से नारायण, प्राणी से प्रभु, शव से शिव, पशु से पशुपति । 'स्व' से सर्व की यात्रा सम्पूर्ण हो जाती है ।
डार्विन के विकासवाद का स्थान आज बर्गसां तथा अलेक्जेंडर के सृजनात्मक विकास वाद ने ले लिया है । आज का वैज्ञानिक जगत् उसे मान्यता दे रहा है उसकी आधारभित्ति का स्वरूप सांख्य एवं योग, बौद्ध तथा जैन दर्शन के ही सिद्धान्त सूत्र है।
ध्यान के विचार में ध्यानमार्ग के चौबीस प्रकार बतलाए गए है । उनमें से पांचवा प्रकार कला और छठा महाकाल जो समाधि के प्रकार है उनमें प्राण सूक्ष्म हो जाता है । आचार्य पुष्पमुनि ने महाप्राण ध्यान का प्रारम्भ किया । महाप्राण ध्यान को ध्यान संवर
चेतना की सर्वोच्च अकम्प अवस्था : ध्यान
For Private And Personal Use Only
- 55