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ध्यान के सैकड़ों मार्ग और पद्धतियाँ हैं | सगुण ध्यान, शरीरांतर्गत विविध चक्रों पर किया हुआ ध्यान; निर्गुण ध्यान, किसी तत्त्व, श्लोक उत्तम विचार पर किया हुआ ध्यान; स्थूल, सूक्ष्म, ज्योतिर्ध्यान आदि अनेक प्रकार है । साधक को चाहिए कि वह अपनी गुरु परंपरा अथवा संप्रदाय के अनुसार किसी एक प्रकार के ध्यान का अभ्यास करें ।
ध्यान साधना के लिए आवश्यक तत्त्व है। साधना का विश्लेषण करते हुए आगम साहित्य में आया है -
धम्मे भगवया तिविहे पन्नता तँजहा, सुअहियं सुज्झायं श्रुतवास्सियं -
भगवान ने धर्म के तीन प्रकार कहे हैं - स्व-अधीन, सुध्यात और श्रुतपास्वित । इस क्रम में सबसे पहला स्थान स्व-अधीन को है । स्व-अधीन यानि स्वाध्याय । स्वाध्याय साधना का पहला सोपान है । इसके बाद सुध्यात तथा श्रुतपास्वित का क्रम आता है । उपनिषद साहित्य के अनुसार ये तत्त्व चिन्तन, मनन और निदिध्यासन कहलाते हैं । ध्यान से पहले स्वाध्याय की महती आवश्यकता पर बल देते हुए आचार्यों ने कहा है -
स्वाध्यायाध्यानमध्यास्तां ध्यानात् स्वाध्यायमायनेत् ।
ध्यान-स्वाध्याय-संपत्या परमात्मा प्रकाशने । स्वाध्याय से ध्यान और ध्यान से फिर स्वाध्याय यही साधना का क्रम है । स्वाध्याय और ध्यान की सम्पत्ति से ही परमात्मा प्रकाशित होता है। ध्यान की विधियाँ -
ध्यान की मुख्यतः दो विधियाँ है . विचार-शून्यता की स्थिति और विचारकेन्द्रीकरण, इन दोनों में से किसी को भी लेकर साधना के पक्ष में अग्रसर हुआ जा सकता है । केन्द्रीकरण प्रथम आलम्बन को लेकर चलते हुए अन्ततोगत्वा 54 - अध्यात्म के झरोखे से
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