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साधन मात्र है । शरीर अनित्य, अशुद्ध होते हुए भी शक्ति का अनंत स्रोत है । शरीर का सदुपयोग अध्यात्म के द्वारा ही संभव है । बहिर्मुखता हर बार आसक्ति तथा भोगी - उपभोगी के प्रति मूर्च्छना की उत्पत्ति होती रही है एवं होती हैं । जबकि अन्तर्मुखता से सारा चिंतन सांसारिक पदार्थों पर नहीं वरन् आत्मपरक होता रहा, होता है, एवं होगा, अन्तर्मुखता से ही विषयभोग छूटते हैं । अन्तर्मुखता से उत्कर्ष सधता है, अन्तर्मुखता से ही कर्म जर्जरित होते है । सच तो यह है कि अन्तर्मुखता से ही अनासक्ति आती है ।
अध्यात्म हमारी परंपरा में आरंभ से ही है । अब यदि इससे विमुख होते हैं तो यह हमारी मूर्खता है। कहा जाएगा कि हम मूल से कट रहे हैं, उसी डाल को काट रहे हैं जिस पर हम बैठे है ।
आज जो सांप्रदायिकता यत्र-तत्र सर्वत्र दृष्टिगोचर हो रही है उसके मूल में भौतिक व्यामोह ही है । इसे और सहजता से समझने के लिए यह सूत्र हम समझें धर्म का शरीर सम्प्रदाय है और इसकी आत्मा अध्यात्म ! ज्यों ज्यों हम शरीर अथवा भौतिक आग्रह अपनाते हैं, हमारी सांप्रदायिक भावना दृढ होती है। यदि हम आध्यात्मिकता की ओर बढ़ेंगें तो हमारे आग्रह शिथिल पड़ेंगे। संप्रदाय भावना हमें व्यर्थ प्रतीत होगी ।
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सही अध्यात्म है - सम्यक् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र | मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नही होता है कि अध्यात्म ही मानव जीवन को अपेक्षित उत्स प्रदान कर सकता है । भौतिकता का आग्रह केवल क्षणिक लाभ अथवा सुख प्रदान कर सकता है । मैं यहां पर यह भी कहना चाहूंगा कि अध्यात्म को प्रदर्शन के परिप्रेक्ष्य में नहीं, उसे अपने वास्तविक परिप्रेक्ष्य में ही लिखा, परखा व अपनाया जाना चाहिए । किसी भी व्यक्ति का आध्यात्मिक रूझान उसे अपने छिछले स्तरों से ऊंचा उठायेगा और कई प्रकार की बाधाये - दुष्प्रवृत्तियाँ अपने आप ही समाप्त हो जाएगी । उन वृत्तियों का अन्त होने का मतलब - मानव जीवन की यंत्रणाओं का अंत है । यहां यह कहें कि आध्यात्मिक संस्थापना आज बेहद जरूरी ही नही अपितु अनिवार्य है तो कोई गलत बात नहीं होगी ।
निजत्व की अनुभूति का प्रयास : अध्यात्म - 47