SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति' का संकेत ही इस आत्मवाद में ध्वनित है इसीलिए तो निश्चय परक भाषा में 'अप्पाणमेव' को संदर्भित किया गया है । "आत्मावारे द्रष्टव्यमः श्रोतव्यः मन्तव्यः निदिध्यासितव्य में इसी की अनुगूंज सुनाई देती है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आत्मा ही एकमेव साध्य है, शोध्य है, बोध्य है आत्मा की पहचान न सिर्फ आत्मा की पहचान है किन्तु आत्मेतर की भी पहचान है। धर्म, दर्शन, अध्यात्म सब इसी उत्स प्रवाहित हुआ है । समत्व, संयम, अनासक्ति, भक्ति, व्रत- नियम सभी आत्मा की धुरी पर गतिशील है । अध्यात्म से जुड़कर ही अन्तर - बाह्य समस्या को सुलझाया जा सकता है । अध्यात्म अर्थात् आत्मा का अध्ययन ! आत्मा की पहचान अर्थात् अपने अस्तित्व की समझ ! जो अपने को नहीं पहचानता, जो अपने प्रति बेखबर है, जो अपने आपसे अनजान है, उससे किसी भी विवेक या बुद्धिमत्ता की अपेक्षा व्यर्थ है । जाना एक बात है, पहचानना दूसरी और समझकर आत्मसात करना, गहराई लिए हुए है । जो आत्मतत्त्व से सर्वथा विलग, केवल देहगत या भौतिकता से संलग्न है, उसमें सतहीपन है । जो सतह पर तिरता रहता है, वह भला-मोती कहाँ से पाएगा ? उसकी प्रवृत्ति में थोथापन है । अध्यात्म क्या है अध्यात्म सही अर्थों में अपने माध्यम से सब कुछ समझना है । जो व्यक्ति सर्वज्ञात होना चाहता है, उसकी यात्रा अपने ही माध्यम से सम्पन्न होना जरूरी है । जो आवश्यक है, अपेक्षित है, उस तक पहुंचने के लिए अपना ही आश्रय सर्वोपरि है । अध्यात्म, अन्तर में उतरने का तहखाना है, शरीर एक आकार है, एक प्रकार है । उस आकार, उस प्रकार के भीतर एक तहखाना है जो भीतर ही भीतर आत्मा के उज्ज्वल आलोक में पहुंचा देता है- वहाँ पहुंचने का अर्थ है - स्थूल का परित्याग कर सूक्ष्म में पहुंच जाना ! वहा पहुंचने का अर्थ है, उन द्वारों को खोल देना, जिनके खुलते ही अपार, अकूत, आत्म- धन उपलब्ध हो जाता है । - जैन दर्शन में आत्मवाद अध्यात्म का प्रमुख स्थान है । किसी भी प्रकार की जैन साधना का प्रमुख लक्ष्य आत्मस्वरूप की प्राप्ति है। आत्मसाधना में शरीर एक 46 अध्यात्म के झरोखे से For Private And Personal Use Only
SR No.008701
Book TitleAdhyatma Ke Zarokhe Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year2003
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Spiritual
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy