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एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति' का संकेत ही इस आत्मवाद में ध्वनित है इसीलिए तो निश्चय परक भाषा में 'अप्पाणमेव' को संदर्भित किया गया है । "आत्मावारे द्रष्टव्यमः श्रोतव्यः मन्तव्यः निदिध्यासितव्य में इसी की अनुगूंज सुनाई देती है ।
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आत्मा ही एकमेव साध्य है, शोध्य है, बोध्य है आत्मा की पहचान न सिर्फ आत्मा की पहचान है किन्तु आत्मेतर की भी पहचान है। धर्म, दर्शन, अध्यात्म सब इसी उत्स प्रवाहित हुआ है । समत्व, संयम, अनासक्ति, भक्ति, व्रत- नियम सभी आत्मा की धुरी पर गतिशील है । अध्यात्म से जुड़कर ही अन्तर - बाह्य समस्या को सुलझाया जा सकता है ।
अध्यात्म अर्थात् आत्मा का अध्ययन ! आत्मा की पहचान अर्थात् अपने अस्तित्व की समझ ! जो अपने को नहीं पहचानता, जो अपने प्रति बेखबर है, जो अपने आपसे अनजान है, उससे किसी भी विवेक या बुद्धिमत्ता की अपेक्षा व्यर्थ है । जाना एक बात है, पहचानना दूसरी और समझकर आत्मसात करना, गहराई लिए हुए है । जो आत्मतत्त्व से सर्वथा विलग, केवल देहगत या भौतिकता से संलग्न है, उसमें सतहीपन है । जो सतह पर तिरता रहता है, वह भला-मोती कहाँ से पाएगा ? उसकी प्रवृत्ति में थोथापन है । अध्यात्म क्या है अध्यात्म सही अर्थों में अपने माध्यम से सब कुछ समझना है । जो व्यक्ति सर्वज्ञात होना चाहता है, उसकी यात्रा अपने ही माध्यम से सम्पन्न होना जरूरी है । जो आवश्यक है, अपेक्षित है, उस तक पहुंचने के लिए अपना ही आश्रय सर्वोपरि है ।
अध्यात्म, अन्तर में उतरने का तहखाना है, शरीर एक आकार है, एक प्रकार है । उस आकार, उस प्रकार के भीतर एक तहखाना है जो भीतर ही भीतर आत्मा के उज्ज्वल आलोक में पहुंचा देता है- वहाँ पहुंचने का अर्थ है - स्थूल का परित्याग कर सूक्ष्म में पहुंच जाना ! वहा पहुंचने का अर्थ है, उन द्वारों को खोल देना, जिनके खुलते ही अपार, अकूत, आत्म- धन उपलब्ध हो जाता है ।
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जैन दर्शन में आत्मवाद अध्यात्म का प्रमुख स्थान है । किसी भी प्रकार की जैन साधना का प्रमुख लक्ष्य आत्मस्वरूप की प्राप्ति है। आत्मसाधना में शरीर एक
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