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इसी तरह भगवान महावीर ने मगध के सम्राट श्रेणिक के पुत्र मेघकुमार को जो मुनि दीक्षा ग्रहण करने के बाद प्रथम रात्रि में ही मानसिक दृष्टि से विचलित हो गया था, उसे उसे पूर्व जन्म से संबंधित हाथी के जीवन की अद्भुत कष्ट सहिष्णुता की घटना की स्मृति करवाकर साधना में स्थिर किया । ऐसी अनेकानेक घटनाएं, ऐसे कई तथ्य शरीरादि के नष्ट होने पर भी आत्मा की शाश्वत सत्ता को पुष्ट करते है। नंदीसूत्र के अनुयोग प्रकरण में 'मूल पढमाणुं ओगे में तीर्थंकर भगवन्ते के भवांतरों का संक्षिप्त वर्णन है । आचार्य हरिभद्रसूरि विरचित समराइच्च कहा, संघवाल गणि विरचित वसुदेवहिण्डी तथा पुष्पदन्त कवि रचित 'जसहरचरिउ' आदि कई ऐसे ग्रन्थ आज उपलब्ध है - जिनमें चित्रित वैरानुबंधी कथाएं आत्मा, कर्म परलोक, पुनर्जन्म आदि के सिद्धान्त का सशक्त प्रमाण है ।
उपनिषदों में आत्म अस्तित्व एवं पुनर्जन्म के सम्बन्ध में आए हुए सूक्ष्म एवं गंभीर चिंतन से जुड़े नचिकेता द्वारा की गई जिज्ञासाएं इस दृष्टि से विश्रुत है । धम्मपद की टीका में भी बुद्धघोष इस यथार्थ को प्रस्तुत करता है । स्वाध्याय के क्षणों में इसी सिद्धान्त का समर्थन करने वाली अभिव्यक्ति मनुस्मृति में देखने को प्राप्त हुई 'प्राणी के कार्य में जिस गुण की प्रधानता से कर्म किया जाता है उसी के अनुसार वह इस संसार में देह-शरीरधारण करता है और उसका उपयोग करता है।
प्रस्तुत लेखन-चिंतन के क्षणों में अचानक मेरे मानस में गीता का इसी आशय का एक प्रसंग उभर आया है, जिसे अगली पंक्तियों में ज्यों का त्यों उपस्थित कर रहा हूँ. कर्मयोगी वासुदेव श्री कृष्ण ने एक बार धर्नुधर अर्जुन से कहा - हे अर्जुन ! मैं जिस अविनाशी योग के सम्बन्ध में तुम्हें बता रहा हूँ, मैंने इसका उपदेश सबसे पहले विवस्वत को दिया था उसने अपने पुत्र मनु को और मनु ने यह उपदेश इक्ष्वाकु को दिया था। यह सुनकर तत्काल अर्जुन ने श्री कृष्ण से पूछा - प्रभो ! आपका कथन यथार्थ है पर मुझे समझ में नहीं आ रहा है, मेरी जिज्ञासा है कि आपका जन्म तो अब हुआ है और विवस्वत का जन्म आपसे बहुत समय पहले हो चुका है फिर आपने इस योग का उपदेश कैसे दिया ?
पुनर्जन्म एवं परामनोविज्ञान की दृष्टि में आत्मा - 39
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