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देह विनाशी है जबकि आत्मा अविनाशी है । देहादि के विनष्ट हो जाने पर भी जीव की आत्मा की सत्ता कभी समाप्त नहीं होती । कर्मों के अनुसार वह पुनः अन्य शरीर को प्रास हो जाता है | आत्मा अविनश्वर हैं उसे न कोई शास्त्र काट सकता है और न उसे अग्नि जला सकती है। कर्मों का आत्मा के साथ जबतक संग-साथ है तबतक 'पुनरपि जन्म पुनरपि मरणं', देह धारण की प्रक्रिया चलती रहती है । कर्म की अवधारणा के साथ पुनर्जन्म की धारणा ध्रुव है । जैनागमों एवं भारतीय पौराणिक साहित्य में तो इस तथ्य की विशद एवं गहरी चर्चाएं है ही, आज इस दिशा में अनुसंधित्सुजनों द्वारा जो प्रयोग किए गए हैं, उससे भी पुनर्जन्म की परलोक की धारणाएं आवश्यक रूप से स्पष्ट हो जाती है । खाओ पीओ, मौज करो, आत्मा, परमात्मा कर्म, अथवा परलोक जैसा कुछ भी नहीं है, धर्म, अध्यात्म का जीवन मे कोई औचित्य नहीं है, जो इस तरह का बेतुका स्वर आलापते हैं, उन्हें इन तथ्यों पर आवश्यकरूप से विचार-चिंतन करके अध्यात्मनिष्ठ योग्य जीवन जीने के लिए अपने आपको प्रस्तुत करना चाहिए। ___ अध्यात्म साधना, धर्म आराधना को नकार कर जो परिहेय से सम्बन्ध स्थापित करते हैं, उन्हें यह विस्मृत नहीं करना चाहिए कि शुभाशुभ कर्मों के अच्छे-बुरे प्रतिफल-परिणाम देर सवेर निश्चित रूप से भोगने पड़ते है। चार्वाक दर्शन के अतिरिक्त सभी भारतीय दार्शनिक लगभग इस अभिमत पर सहमत है । ___ पुनर्जन्म की मान्यता को प्रमाणित करनेवाले कुछ तथ्य प्रस्तुत संदर्भ में संक्षिप्त रूप से अंकित करने में आवश्यक समझ रहा हूँ । भगवान महावीर ने उनके प्रधान शिष्य गणधर गौतम से एक बार कहा था - हे गौतम । तेरा और मेरा बहुत लम्बे काल से, अनेक जन्मों से सम्बन्ध चला आ रहा है । तूं मेरा अपना पुराना परिचित है । भगवान महावीर के इस कथन को सुनकर गौतम स्वामी को भगवान के साथ रहे हुए पूर्वजन्मों के सम्बन्धों का परिज्ञान हो गया । भगवती सूत्र में इसका स्पष्ट उल्लेख है . 'चिर संसिट्ठोऽसि मे गोयमा । चिरपरिचियऽसि मे गोयमा... ।
38 - अध्यात्म के झरोखे से
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