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सकते । जहा अनि है वहीं उष्णता है, जहाँ मिश्री है वहीं मिठास है । जहाँ आत्मा है वहाँ ज्ञान है । इस ज्ञान के बाद ही अन्तर प्रकाशमान बनता है ।
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हमारा पुरुषार्थ सर्वप्रथम आत्मस्वरूप, अपने स्वरूप को जानते, देखने अथवा समझने में लगनी चाहिए। भगवान महावीर ने कहा 'जे एगं जाणेइ, ते सव्वं 'जाणे' जो एक आत्मा को जान लेता है, वह सब को जान लेता है । यही बात उपनिषद काल के एक मनीषी आचार्य ने किसी जिज्ञासु के द्वारा यह पूछे जाने पर कि संसार का वह कौन सा तत्त्व है जिसके जान लेने पर सबकुछ जान लिया जा सकता है । तो उन्होंने कहा - " आत्मनि विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति" अर्थात् एक आत्मा को जान लेने पर ही सब कुछ जान लिया जाता है । इससे यह स्पष्ट है कि आत्मतत्व ही सर्वोपरि है ।
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विश्व रचना के मूलभूत घटकों में निश्चित रूप से आत्मा का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । दृश्यमान इस जगत में आत्म- अस्तित्व के संदर्भ अनेकानेक रूपों में उपलब्ध है | आत्मतत्त्व की संकल्पना का सार्वमौलिक एवं सार्वभौमिक है । विश्व अस्तित्व का बोधक जीवात्मा है । अस्तित्ववादी परम्पराओं का प्राण भी आत्मा ही रहा है । समस्त द्रव्यों, पदार्थो एवं तत्त्वों में मूल्यों की दृष्टि से सर्वाधिक मूल्यवान आत्मा ही है । जैन आगमिक साहित्य में, जहां जीव-तत्त्व के स्वरूप पर चिंतन की धारा अटल गहराई तक पहुंची है, वहाँ वर्गीकरण एवं विस्तार को भी पूर्ण वैज्ञानिकता के साथ जानने का प्रयत्न दृष्टिगोचर होता है ।
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जैन दर्शन आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व को मानता है, परलोक पुण्य, पाप, कर्मबन्धन, मुक्ति आदि के अस्तित्व को स्पष्टतः स्वीकार करता है । वस्तुतः जैन दर्शन ने आत्मा आदि उन तत्त्वों पर जितनी गहराई से चिंतन, जितना सूक्ष्म अन्वेषण किया है, उतना किसी भी अन्य विचारधारा ने नहीं किया । आत्मा अस्तित्व, पुण्य, पाप, कर्मबन्धन तथा मुक्ति के सम्बन्ध में जितने स्पष्ट एवं तर्क सम्मत प्रमाण जैन दर्शन में उपलब्ध हैं, वें निश्चित रूप से अद्भुत है । जैनों का आगम एवं दर्शन साहित्य- आत्मतत्त्व के विवेचन से भरा पड़ा
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पुनर्जन्म एवं परामनोविज्ञान की दृष्टि में आत्मा - 37