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उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार - ‘एयं चयरित्त करं, चारित्तं होइ आहियं” अर्थात् चारित्र, कर्म के संचय को रिक्त, निःशेष करने का सशक्त साधन है । चारित्र को गौण करके आध्यात्मिक क्षेत्र में गतिशीलता संभव नहीं है । चारित्र की उपेक्षा पर चारित्र को खोने पर जीवन में शेष रह ही क्या जाता है । तीर्थंकरचरित्र इस बात के साक्षी है कि - चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर ने आध्यात्मिक चरम परम को संप्राप्त करने के लिए साढे बारह वर्ष तक सुदीर्घ तपः साधना, उत्कृष्ट चारित्र की आराधना से अपने आपको संलग्न रखा, वे तबतक सर्वथा मौन रहकर तपःसाधना करते रहे जब तक उन्हें अंतर में आध्यात्मिक अनुभूति का अमृत उपलब्ध नहीं हो गया ।
आधुनिक युग में चारित्र को गौण कर के जिस प्रकार से एकान्ततः 'ज्ञान' को पुष्ट किया जा रहा है उसके लिए जिस तरह से विधायक परिणाम उभर कर आने चाहिए, वे नही आ रहे है । आज की इस स्थिति के सम्बन्ध में किसी मनीषी कवि ने बड़ी अच्छी अभिव्यक्ति की है -
तर्क से तर्कों का रण छिड़ा, विचारों से लड़ रहे विचार । ज्ञान के कोलाहल के बीच, डूबता जाता है संसार ॥ और, उसका उल्टा परिणाम, बुद्धिका ज्यों ज्यों बढ़ता जोर ।
आदमी के भीतर की शिरा, और होती जाती है कठोर ॥ सम्यक् चारित्र से शून्य, ज्ञानी अपने जीवन में केवल ज्ञान का भार ढोता है। चन्दन का भार उठाने वाला गधा सिर्फ भार ढोने वाला है, उसे चन्दन की सुवास का कोई पता नहीं चलता | ज्ञान, सम्यक् चारित्र से जुड़कर ही गौरवान्वित होता है । सम्यक्चारित्र जीवन का सच्चा श्रृंगार है। इसी से आंतरिक निखार एवं परिष्कार आता है। सम्यक चारित्र से शून्य जीवन-जीवन नहीं रह कर भार बन जाता है। जो चारित्र से शून्य है, उसका पतन अवश्यम्भावी है । जो चारित्र परायण हैं, उन्हें पतन के लिए तनिक भी अवकाश जीवन के किसी मोड़ पर कही भी नहीं है। सम्यक् चारित्र जीवन की ज्योति है, 28 - अध्यात्म के झरोखे से
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