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श्रमण पर्याय की ज्येष्ठता एवं लघुता का निर्धारण होता है। परिहार विशुद्ध चारित्र में तप की आराधना की जाती है । परिहार का अर्थ तप है । सूक्ष्मसंपराय चारित्र साधक जीवन की उच्चस्तरीय स्थिति है, इसमें कषायों के अणु उपशांत या क्षीण हो जाते हैं । कषायों का सर्वतो उपशांत या क्षीण होना - यथाख्यात चारित्र है । यह निश्चय चारित्र है । इसके आधार पर चारित्र के तीन भेद होते हैं, उन्हें इस प्रकार जाना जाता है - क्षायिक, औपशमिक और क्षायोपशमिक. चारित्र के सभी विभाग, आत्मानुसंधान की प्रक्रियाएं है । इस तरह आध्यात्मिक विकास सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र की निर्मल, पवित्र साधना आराधना पर आधारित है । तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्ययन की प्रथम गाथा में सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र को आराधना को मोक्ष मार्ग कहा गया है । आत्मस्वरूप तत्त्वस्वरूप को समीचीन रूप से जान लेना सम्यक् ज्ञान है, उस पर श्रद्धा करना सम्यक् दर्शन है - एक जीवन में उपादेय को आत्मसात कर लेना एवं परिहेय का परित्याग कर देना सम्यक् चारित्र है, यह पूर्णता ही आध्यात्मिक चरम विकास है। उत्तराध्ययन सूत्र में उल्लेख है -
नाणेण जाणेई भावे, दंसणेण य सरहे ।
चारितेण निग्गण्णाहि तवेण परिसुज्झइ ॥ __ ज्ञान से भावों का जाना जाता है, दर्शन से श्रद्धा की जाती है, चारित्र से कर्मों का निग्रह किया जाता है एवं तप से परिशुद्धि होती है । तपःसाधना, चारित्र में समाविष्ट हो जाती है. चारित्र का मूल्य, महत्त्व निर्विवाद है । डॉ. राधाकृष्णन के अनुसार आध्यात्मिक उपलब्धि तब होती है जब वासनाएं मर जाती है और अन्तर मन में एक ऐसी अलौकिक, अपूर्व शान्ति समुत्पन्न होती है - जिसे आंतरिक शब्तातीत आनंदाभूति कहते हैं । यह चारित्र के महत्त्व को व्यक्त करती है।
सम्यक् चारित्र, जीवन की समीचीन शैली है । चारित्र का अर्थ, उद्देश्य स्वरूप में रमण करना तथा आंतरिक विकृतियों एवं अस्थिरता का समाप्त होना है ।
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