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आध्यात्मिक जीवन की पूर्णता के लिए सम्यक् चरित्र
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आ
ध्यात्मिक जीवन की पूर्णता के लिए सम्यक् चारित्र अनिवार्य है । केवल श्रद्धा या ज्ञान अधूरा पक्ष है । मात्र श्रद्धा पर
ज्ञान से काम नहीं चलता, उसके लिए आचरण
आवश्यक है । जिज्ञासु द्वारा जब यह पूछा गया
कि अंग सूत्रों का सार क्या है ? तो इसका
हुश्रुत आचार्यों द्वारा समाधान दिया गया कि इन सबका सार आचार है, सम्यक् चारित्र है । इसके अभाव में आंतरिक विकास थम जाता है ।
सम्यक् चारित्र, मन, वचन एवं काय की गति विधियों का सम्यक् नियमन करता है । चारित्र दो
व्यवहार चारित्र और निश्चय
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प्रकार के हैं
चारित्र । व्यवहार चारित्र अणुव्रत, महाव्रत समिति, * गुप्ति, धर्म एवं तप में प्रवृत्ति है । आत्मस्वरूप में
लीनता
तथा क्रोधादि कषाय एवं विकास की
क्षीणता अथवा अल्पीकरण निश्चय चारित्र है ।
26 अध्यात्म के झरोखे से
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जैनगमों में चारित्र का वर्गीकरण पांच प्रकार से किया गया है सामाजिक चारित्र, छेदोपस्थापनीय चारित्र, परिहम् विशुद्धी चारित्र, सूक्ष्म संपदाय चारित्र एवं यथाख्यात चारित्र । पहले इन चारित्रों के स्वरूपों को भी संक्षेप में समझ लेना चाहिए | हिंसा असत्य आदि पापों से विरति सामाजिक चारित्र है । इसका ग्रहण कुछ सीमा विशेष के लिए भी किया जाता है तथा संपूर्ण जीवन के लिए भी । छेदोपस्थापनीय चारित्र में
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