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यह ज्योति अन्तर बाह्य रूप से जीवन के आंगन को आलोकित करती है । दुराचार के अंधकार को सम्यक् चारित्र के आलोक के आलोकित होने पर स्थान नहीं मिलता और जब अंधकार ही नहीं है तो किसी भी तरह की ठोकर किसी भी तरह के भटकाव अथवा किसी भी तरह की हानि की संभावना नही रहती । पाप कभी भी प्रकाश में नहीं अपितु अंधकार मे पला करते हैं।
अध्यात्म की यात्रा में सफल होने के लिए चारित्र सचमुच सम्बलस्वरूप है । अहिंसा, संयम और तप की त्रिआयामी धर्मप्ररूपणा में तीर्थंकर महावीर ने 'संयम' अर्थात चारित्र को धर्मवृक्ष का मूल कहा है । संयम, अर्थात् चारित्र के संतुलन केन्द्र पर जब आत्मा ठहर जाती है तो चेतना से उत्तेजना का कुहासा छट जाता है । असंयम, चारित्रहीनता अध्यात्म साधना की बड़ी बाधा है । जो सम्यक्चारित्र का संवाहक है वही अध्यात्म की साधना आराधना भलीभांति कर सकता है ।
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आध्यात्मिक जीवन की पूर्णता के लिए सम्यक् चरित्र - 29
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