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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कि आत्मशक्ति की प्रतीति और उसके समुद्घाटन में योग का सहयोग निर्विवाद है। योग-साधनों को सही-सही रूप से समझा जाए एवं समाधि के साधनों को बिना प्रमाद के ठीक तरह से जीवन में प्रतिस्थापित किये जाए ताकि अनावश्यक, परिहेय का उन्मूलन हो सके। प्रस्तुत संदर्भ के अंर्तगत पुनः एक बात स्पष्ट करना चाहता हूँ कि कर्मबन्ध का प्रमुख कारण कषाय है, स्वतः सक्रिय नहीं होता, उसे अभिव्यक्त करने का साधन योग है । मन, वचन और काया - इन तीनों योगों में से किसी एक योग की सहायता के बिना कषाय की अभिव्यक्ति नहीं हो सकती है | अतः यह जानना आवश्यक है कि इन तीनों आधारों में से मुख्य आधार कौन सा है ? जैन दर्शन एवं बौद्धिक दर्शन आदि ने इसमें मन को कर्मबन्धन का प्रबल कारण माना है। इसी के सहयोग से मन, वचन और काया की प्रवृत्ति में शुद्धता एवं मलीनता आती है । गीता में कहा गया है - यह मन बड़ा चंचल है इसका निरोध करना सरल नहीं है, परन्तु यह निश्चित है कि इसका निरोध होने पर ही मुक्ति होती है । जैनागमों में भी मन को प्रमुख माना है। कर्म-बंध के लिए वचन और शरीर की क्रिया के स्थान में जीव के परिणामों-आंतरिक भावों या मानसिक चिन्तन को कर्मबंध का प्रमुख कारण माना है । जैन दर्शन की तरह उपनिषदों में भी मन को शुद्ध और अशुद्ध दो तरह का माना है । काम संकल्परूप मन को अशुद्ध और उससे रहित मन को शुद्ध कहा गया है । अशुद्ध मन संसार का कारण है और शुद्ध मन मुक्ति का । जैन विचारकों ने कहा - जबतक कषाय का क्षय नही हो जाता, तबतक अशुद्ध मन रहता है और बारहवें गुण स्थान में और तेरहवें गुण स्थान में शुद्ध मन की प्रवृत्ति होती है और चौदहवें गुण स्थान में पहुँचते ही केवली सर्व प्रथम मन योग का निरोध करते हैं, उसके बाद वचन और काय योग का निरोध करते हैं । ___ तथ्य यह है - इस तरह तीनों योगों में मन योग को सबसे प्रबल माना है । उसका निरोध होने पर वचन और काय योग का निरोध सहज ही हो जाता है। जबतक मन का निरोध नहीं होता, तबतक वचन और काय योग का निरोध नहीं 22 - अध्यात्म के झरोखे से For Private And Personal Use Only
SR No.008701
Book TitleAdhyatma Ke Zarokhe Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year2003
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Spiritual
File Size11 MB
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