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लगावों से बेलाग बचाये रखने में सहयोग करता है। सचमुच योग ऐसा योग है जो मनुष्य को हर अभियोग से परे करता है । वह एक ऐसा अनुयोग है, जो मनुष्य के मन में विशुद्धि की प्रतिस्थापना करता है । योग - दिव्यता है, जो मनुष्य को उच्चतम लक्ष्य की प्राप्ति प्रदान करती है । योग, गरिमा है, जो अनंत शक्ति का वहन करने की क्षमता देता है । योग, मिलन है, जो किसी भी प्रकार के सम्मिलन का चरमस्वरूप है । योग, समाधि है, जो वह स्थैर्य देती है कि सारे क्लेश उस स्थिति में समाप्त हो जाते है । योग, समाधान है, जो प्रकृति के रहस्य को प्रकट करती है, I चेतन स्वरूप को उजागर करता है |
इसी तरह व्याधि उपाधि, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्ति, अलब्धभूमिकत्व, अनवस्थितत्व योग में बाधक तत्त्व हैं । इन बाधक तत्त्वों को रोकने पर अध्यात्म में अवरोध की संभावनाएं नहीं रहती । कुल मिलाकर योग अनियंत्रण जीव के लिए दुःखद है एवं योग नियंत्रण सुखद है । मन वचन एवं काया क्रियाशीलता योग है । क्रियाशीलता सदैव समुचित दिशा में रहनी चाहिए ।
मनोविकार द्वारा होनेवाले 'योग' अथवा 'कम्पन' ही कर्मो के कर्ता-धर्ता तथा विधाला है । इस प्रकार कर्म बन्ध हेतुओं के भेदों में भिन्न-भिन्न संकेत मिलते हैं, पर योग का उल्लेख सर्वत्र है । समवायांगसूत्र में कषाय और योग इन दो को ही हेतु माना है । भगवती सूत्र में प्रमाद एवं योग का संकेत है । कर्म सिद्धान्त के अनुसार कर्मबन्धन के संक्षेप शैली से कषाय एवं योग इस तरह दो हेतु है, जबकि विस्तार शैली से मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और योग पांच कारण है। कर्म-बंध हेतुओं के समग्र विवेचन, विश्लेषण का हार्द एवं निष्कर्ष यह है कि आश्रव बन्ध का कारण है और चेतना तथा सूक्ष्मतम पौद्गलिक कणों का पारस्परिक राग द्वेष रूप, कषाय एवं योग के सहयोग से उत्पन्न प्रतिक्रियाओं का परिणाम है । मिथ्यात्व आदि आश्रव 'प्रत्यय' अर्थात भावाश्रव है और योग एवं कषाय के विस्तार है ।
मन- शरीर इन्द्रियों का शासक है । वचन - अन्तस्थभावों की अभिव्यंजना का माध्यम है । शरीर क्रिया शक्ति का केन्द्र है | अध्यात्म रहस्य में स्पष्ट कहा गया है
अध्यात्म साधना में योग का सहयोग
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