SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org विष के समान है जो जिह्वा पर आते ही व्यक्ति को प्रभावित करता है । कटुता की तिक्तता जितना अन्य व्यक्ति को आघात पहुचाती है, वही उस व्यक्ति को भी पीड़ा देती है । स्वात्म प्रशंसा अपनी बडाई के द्वारा व्यक्ति जो कुछ वह है, उससे अधिक दर्शाने की चेष्टा करता है । व्यर्थ की बातों में कोई अर्थ खोजना अपने वचन को निरर्थक करना है । कूडे का ढेर इकट्ठा करने से सड़ांघ ही उपलब्ध होती है । व्यक्ति, जो अपने स्वार्थ को सर्वोपरि मानता है, वह आप्त-कथन को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करता है । जो सत्य है उसे ढांप कर वह मिथ्या अवधारणाओं को उभार देता है. शास्त्रों को इस प्रकार मिथ्यारूप में प्रस्तुत करने से पूरी मानवता के प्रति एक कुचेष्टा का अवसर आ जाता है। आज आगम के तथ्यों को सम्यक्प्रकार से नहीं समझकर जिस तरह की विपरीत प्ररूपणाएं तथाकथित क्रान्ति एवं विकास के नाम पर की जा रही है, स्पष्टतः वीतराग संस्कृति पर प्रहार है, जो स्पष्टतः अविवेकपूर्ण है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कायिक योग के दुरुपयोग के नाते भी विकृतियाँ उपजती है जैसे किसी को पीड़ा देना, व्यक्तिवाद, चौर्य कर्म, दंभ, व्यर्थ चेष्टाएं आदि जो अध्यात्म में बाधक होती है । जितना व्यक्ति सचेष्ट रहता है, उतना ही यथेष्ट का वरण करता है । विकृतियों के निवारण के लिए आत्म-निरीक्षण एक श्रेष्ठ साधन है । वह सत्कर्म तथा दुष्कर्म के भेद को परखे । सत्कर्म की सततता के लिए वह आंतरिक सजगता अर्जित करे । दोष लघु से लघु स्वरूप में भी हानिकारक है । - — वस्तुतः योग निष्ठता ही जीवन निष्ठता है। योग के कर्म से ही मानव अपने संपूर्ण विस्तार को एक बिन्दु पर केन्द्रित कर देता है और उसी बिन्दु से उसकी 'स्व' की यात्रा आरंभ हो जाती है । यात्रा के इस क्रम में वह जीवन की चाह को पा लेता है । योगीजन आलोक में प्रसरण करते हैं और अपने मन की अनंत जिज्ञासाओं को लेकर वे आलोक के प्रकाश के अन्तिम बिन्दु की खोज करने में संलग्न हो जाते हैं । यह एक ऐसी यात्रा है जिससे जरा सी भी थकान का अनुभव नहीं होता है । - योग का कार्य ही है - दुर्गुण, दुर्व्यसन आदि दूर करे और सद्गुण और सद्भाव लाए । योग, मनुष्य के अंतःकरण की वह स्फूर्ति है जो उसे सांसारिक आसक्तिपूर्ण 20 अध्यात्म के झरोखे से For Private And Personal Use Only
SR No.008701
Book TitleAdhyatma Ke Zarokhe Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year2003
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Spiritual
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy