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परित्याग की बात कहती है और यह फल परित्याग अनासक्ति योग है। योग ने देह में विदेह और अणु में महान तत्त्व की प्रतिष्ठा कर उच्चता दी है। योगीजनों का आनंद स्थायी होता है । वह अन्तर के समस्त द्वार खोल देता है।
योग के क्षेत्र में जो प्रवृत्त है, उस व्यक्ति का मन स्वस्थ और प्रसन्नता से परिपूर्ण होता है । वैसे योगी के लिए सुख दुःख जैसी कोई अनिवार्यता नहीं होती वह स्थितप्रज्ञ होता है. जैन दर्शन में योग, ध्यान आदि को बुनियादी महत्त्व प्राप्त है । इसमें उसके कई रूप है । संवर, निर्जरा, संयम सभी में योग की अवस्थिति है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है - मन, वचन और काया इस तरह तीन योग है। वाहन को वहन करते हुए बैल अरण्य लांघता है, वैसे ही - योग को वहन करने के बाद साधक संसार के अरण्य को सुगमता से पार करता है। बाहर की ओर जो शक्ति बिखरी है, वह एक ध्येय पर स्थिर होती है तो योग कहलाती है। मन की चंचलता को योगीजन वश में कर लेते है। योग सूत्र की परिभाषा के अनुसार - “योगश्चित्त वृत्ति निरोध अर्थात् आंतरिक चित्तवृत्तियों का निरोध ही योग है। चित्तवृत्तियों को अनियंत्रित रखकर चलने का अर्थ व्यवहार और परमार्थ के क्षेत्र में पिछड़ना है । आज अधिकांश समस्याएं जो जीवन के आंगन में परिलक्षित होती है उनका प्रमुख कारण एक यह भी है कि व्यक्ति का उसका अपना स्वयं पर नियंत्रण नहीं है। ___ चित्तवृत्तियाँ, विषाद, निर्दय विचार, व्यर्थ कल्पना जाल, भटकाव, अपवित्र विचार, द्वेष या अनिष्ट चिंतन से दूषित होती है। दोषों की कालिमा अपवित्रता है । अपवित्रता से नैतिकता एवं आध्यात्मिकता ध्वस्त होती है । भटकाव को सक्रियता मिलती है और यह सक्रियता अनेक प्रकार की उलझनों को निर्मित करती है । अध्यात्म के क्षेत्र में गति-प्रगति के लिए प्राथमिक बात मन की विकृतियों का परिहार है । मन की विकृत्तियों के परिहार आ जाती है । असत्य भाषण, निंदा, कटुवचन, स्वातम् प्रशंसा, अनावश्यक बातें, आगमों के लिए मिथ्याप्ररूपणा ये वचन के क्षेत्र हैं । सत्य से परे असत्य कथन अनेक प्रकार की विडम्बनाओं को जन्म देता है। निंदा द्वारा स्वयं किसी के प्रति दुर्भाव रखने की क्रिया को विस्तार दिया जाता है। किसी के प्रति अन्तर्गलरूप से कटुवचन कहने में व्यक्ति अपनी कुशलता मानता है, परन्तु वचन उस
अध्यात्म साधना में योग का सहयोग - 19
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