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जो समस्त चल अचल प्राणियों के प्रति समत्व में संस्थित है वही सामायिक व्रत की आराधना कर सकता है। जब तक हमारे मानस में किसी भी प्राणी के प्रति राग या द्वेष, क्रोध या घृणा, लगाव या टकराव अलगाव की अन्तःप्रतीति है, हम अध्यात्म साधना से बहुत दूर है | जब तक हम अपने दूसरों के वैषम्यमयी भेद सत्ता में खोये हैं अध्यात्म साधना का हम स्पर्श भी नहीं कर पाते ।
सामायिक के अन्तर्गत हम एक निश्चित समय तक राग-द्वेष से मुक्त होकर बैठते हैं, इस अभ्यास का हम प्रयास करते हैं ताकि अंततः हमारा सारा जीवन इससे अनुप्राणित हो जाए । प्रतिपल हमारी चेतना समत्व में रमण करने लगे । कैसी भी विषमातिविषम परिस्थिति हो, हम उस प्रवाह में अनुश्रोतगामी बनकर न बहे । हर परिस्थिति में समभाव में अर्थात् अपने स्वभाव में रहें । कोई कुछ भी कहे, हम अपने आपमें रहे। आवेग, उद्वेग और उत्तेजनाओं में नहीं, संवेग और समत्व में स्थित होने का प्रयास करें ।
छोटी-छोटी बातों को लेकर हम किस तरह आवेश में आ जाते हैं, किस प्रकार हम विषमताएं खड़ी कर देते हैं । किस तरह हम कर्म - बंध के हेतुओं को मजबूत बना लेते हैं, पर यह नहीं सोच पाते कि इस जीवन का उद्देश्य क्या है ? क्या करना चाहिए और हम क्या कर रहे हैं ? उस समय मन में गहरी पीड़ा की अनुभूति होती है कि धर्म का क्षेत्र जो रागद्वेष से निवृत्ति का क्षेत्र है उसे भी हम राग-द्वेष से ग्रस्त होकर विषम बना देते हैं। ऐसे में अध्यात्म साधना कैसे संभव है ?
मन को राग और द्वेष की विकृतियों से मुक्त बनाए बिना अध्यात्म साधना हो ही नहीं सकती । तन को साधने वाले कई हैं, पर आवश्यकता इस बात की है कि मन को साधने का अभ्यास किया जाए। यह ठीक है कि रागद्वेष पर कषाय पर जय करना इतनी सरल बात नहीं है किन्तु असंभव भी नहीं है । कठिन अवश्य है, पर कठिन से कठिन कार्य भी निरंतर यदि अभ्यास किए जाएं तो सहज और सुगम हो जाया करते हैं ।
अध्यात्म का प्राणतत्त्व : रागद्वेष एवं कषाय से मुक्ति - 171
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