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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यहाँ, यह आवश्यक रूप से समझ लेना चाहिए कि चार कषायों में माया और लोभ का उद्गम राग से है एवं क्रोध और मान की उत्पत्ति द्वेष से है । जहाँ कषाय है, वहाँ भव-भ्रमण है और जहाँ भव-भ्रमण है वहां दुःख ही दुःख है । प्रस्तुत संदर्भ में एक बात और चिंतनीय है कि अठारह प्रकार के जो पाप हैं उनका संपूर्ण संबंध राग और द्वेष से है । छः पाप राग से, छः पाप द्वेष से एवं छः राग और द्वेष से संयुक्त रूप से संबंधित है । मैथुन, परिग्रह, माया, लोभ, माया, मृषावाद और मिथ्यादर्शन शल्य राग से बढ़ते हैं, तो क्रोध, मान, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य और परपरिवाद द्वेष से अभिवृद्धि पाते हैं। इसी तरह प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान रति-अरति रागद्वेष से जुड़े है। राग-द्वेष का त्याग ही सच्चा त्याग है । पदार्थो का त्याग सहज है, पर राग और द्वेष का त्याग दुष्कर है। जो यह त्याग कर लेते हैं वे अपने दुर्भाग्य को सौभाग्य के रूप में परिवर्तित कर लेते हैं । वही अध्यात्म के आनंद से सराबोर बनते हैं। इस दृष्टि से किसी मनीषी आचार्य ने एक बार बड़ी महत्त्वपूर्ण अभिव्यक्ति की - रागद्वेषौ यदि स्मातां, तपसा किं प्रयोजनम् ? रागद्वेषौ न च स्मातां, तपसा किं प्रयोजनम् !! रागद्वेष यदि विद्यमान है तो फिर सुदीर्घ तपःसाधनाओं का क्या अर्थ है ? सबसे बड़ा तप रागद्वेष पर विजय है । यदि रागद्वेष नहीं है तो तप करने की आवश्यकता ही कहाँ है ? हम जो भी क्रियाएं करते हैं उनका मूल उद्देश्य रागद्वेष से निवृत्ति है । रागद्वेष से निवृत्ति ही विकृति से मुक्ति है। इसके लिए आंतरिक जागरूकता नितांत आवश्यक है । विषमता में जब तक भीतर में रूचि रस रहेगा, तब तक समता की अनुभूति, आध्यात्मिक उन्नति हो नहीं सकती। जैन साधना इसीलिए प्रारंभ से ही चित्त दर्शन और उससे उठनेवाली अनुकूल प्रतिकूल संवेदनाओं के प्रति समता का अभ्यास देती है। श्रावक हो चाहे श्रमण उसकी सामायिक का यही ध्येय है। भगवान महावीर ने कहा है - समो य सव्व भूएसु, तसेसु थावरेसु य । तस्स सामाइयं होइ इइ के वलिभासियं ॥ 170 - अध्यात्म के झरोखे से For Private And Personal Use Only
SR No.008701
Book TitleAdhyatma Ke Zarokhe Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year2003
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Spiritual
File Size11 MB
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