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राजा कहा गया है । मोह आत्मभावों में जबतक बलवान रहता है, दूसरे कर्मों के आवरण भी कठिन बने रहते है और यदि इस मोह-दुर्ग की प्राचीरें तोड़ी जा सके तो अन्य कर्म सूखे पत्तों की तरह स्वयं झड़ने लगते हैं । ___ मोह की प्रधान शक्तियां दो हैं - १. आत्मा के दर्शन को अवरूद्ध बनाती है । उसके स्वरूपानुभव को कुण्ठित करती है। २. यदि स्वरूपानुभव कदाच कुण्ठित न हो पाये तो भी कर्म क्षय कराने वाली प्रवृत्तियों में जुटने नहीं देती । स्वरूप के यथार्थ दर्शन तथा उसमें स्थिति होने के प्रयास खुद करने वाली शक्तियाँ मोह कर्म की होती है। इन्हें दर्शनमोह एवं चारित्र मोह की संज्ञा दी गई है। आत्मा की विभिन्न स्वरूप स्थितियाँ इस मोहनीय के हिंडोले में झूलते हुए बनती है | आत्मा का पतन और उत्थान, पतन से उत्थान और उत्थान से पुनः पतन इसी हिंडोले में होता है । जो आत्मा इन गुणस्थानों की स्थिति को समझकर अपने मनोभावों में आवश्यक संतुलन एवं स्थिरता अर्जित कर लेती है। वह क्रमशः ऊपर के गुणस्थानों में चढ़ती रहती है, आध्यात्मिक समृद्धि, परिपूर्णता मुक्ति प्राप्त कर लेती है।
अविकसित तथा अधःपतित आत्मा की अवस्था प्रथम गुणस्थान में होती है। इसमें मोह की दोनों शक्तियों का जोर बना रहता है और वे दृढ़ता से आत्म अवरूप को आच्छादित कर लेती है । इस अवस्था में आत्मा की आध्यात्मिक स्थिति लगभग पतित सी होती है और कैसा भी आदि भौतिक उत्कर्ष होने पर भी उसकी प्रवृत्ति तात्विक लक्ष्य से पूर्णतः शून्य ही बनी रहती है। ऐसी आत्मा की गति दिग्भ्रान्त होती है तथा वह विपरीत प्रवृत्ति में यात्रा करती रहती है । यही मिथ्या-दर्शन है । मिथ्यात्व नाम जड़ता का है, उस जड़ता का जिसमें मोह का प्रभाव प्रगाढ़तम होता है। जैसे ही अपनी विकास-यात्रा के आरंभ में आत्मा दर्शन मोह पर यथापेक्षित विजय प्राप्त करती है, वैसे ही प्रथम से तृतीय गुणस्थान में प्रवेश कर लेती है। इस समय पर स्वरूप में स्व-स्वरूप की जो भ्रान्ति होती है, वह दूर हो जाती है और तीसरे गुणस्थान के प्रभाव से विपरीत प्रवृत्ति भी विकासोन्मुख बनने लगती है। तीसरा गुणस्थान सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का मिश्ररूप होता है । कभी दर्शनमोह मन्द पड़ जाता है, कभी वह फिर
160 - अध्यात्म के झरोखे से
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