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सशक्त हो उठता है -
तन धोए से क्या होता है, जब तक मन न धुले ।
सब कुछ बदले इक पल भर में, जब अन्तर बदले !! अध्यात्म दरअसल अंतःकरण का बदलाव है । बाहर से अंतर की ओर प्रवेश है। भोग से हटकर योग से जुड़ाव है। राग के स्थान पर त्याग की स्थापना है, देह की नहीं अपितु, आत्मा की उपासना है । यही सार्थक दृष्टिकोण है । अन्यथा अंतरशुद्धि मनःशुद्धि अथवा भीतर के परिष्कार को नकार कितनी ही क्रियाएं कर ली जाए, वे पूर्णता निष्प्राण है । एक प्रसिद्ध श्लोक है -
भ्रमन सर्वेषु तीर्थेषु, स्नात्वा, स्नात्वा पुनः पुनः ।
मनो न निर्मलं यावत्, तावत् सर्व निरर्थकम् ॥ इसे हम यों भी कह सकते है -
तीर्थ, तपस्या, दान, जप, ज्ञान और प्रभुनाम !
दे सकते ये काम क्या, जब तक चित्त हराम !! मन को विग्रहों से बचाना, प्रत्येक मानव का दायित्व है और यह संभव है मनोनिग्रह से । यह ठीक है कि मन बड़ा वाचाल है, उस पर अंकुश रहना बड़ा ही दुष्कर कार्य है, पर अभ्यास से दुष्कर भी सरल रूप में परिवर्तित हो जाता है।
चैतन्य मन ही उज्ज्व लता ग्रहण करता है । प्रकाश भी देता है। मन की, अंतर की चैतन्यता मन के निग्रह, मन की शुद्धि से ही उपजती है । वैरागी मन किसी विग्रह में नहीं फंसता । रागमय मन अनेक अपेक्षाओं से जुड़ा रहा है और उन अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए वह विग्रहों की रचना करता है। अनेकानेक कल्पनाएं संभावनाएं मन को निरंतर उलझाए रखती है । वह ऊहापोहो में उलझ जाता है। सिर्फ चैतन्य ही उसे उनसे छुटकारा दिला सकता है। तीसरे गुणस्थान में यह धूप-छाँव चलती है।
जब परमात्मा स्वरूप को आत्मा देखने और समझने लगती है तो वह चौथे सम्यक् दृष्टि गुणस्थान में बैठती है । यहां उसकी दृष्टि में सम्यक् दृढ़ बनता है,
आध्यात्मिक विकास क्रम के चौदह सोपान - 161
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