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है जिन्हें हमने कभी रोपा है। अर्थ स्पष्ट है कि मनुष्य या कोई भी प्राणी स्वयं अपने भाग्य का निर्माता तथा अपने कर्म योग के लिए स्वयं उत्तरदायी होता है । जैसा कर्म वैसा फल, यह है - कर्मवाद. पाप कर्म आत्मा को डूबोता है, पुण्य इसे तिराता है । किन्तु पुण्य-कर्म को भी नाव के समान छोड़ने पर ही दूसरे किनारे पर पांव रखा जा सकता है । सभी प्रकार के कर्म क्षय के बाद ही मोक्ष का दूसरा तट हाथ लगता है ।
संसार के इस महोदधि में कौन-सी आत्मा कितनी डूबी हुई है या कौन-सी किस ओर तैर रही है अथवा कौन-सी कब किनारें लग जाएगी ? इसकी जो मापक दृष्टि है, वही गुणस्थान दृष्टि है । आत्मा का गुण है... उसका मूल स्वरूप । इसकी संपूर्ण उपलब्धि की दृष्टि से आत्मा के विकास सोपान का निर्णय गुण की दृष्टि से ही संभव होता है।
मोह और योग के निमित्त से सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन एवं सम्यक् चारित्र रूप आत्मा के गुणों की तारतम्यता, हीनाधिकतारूप अवस्था विशेष को गुणस्थान कहते हैं। अन्य शब्दों में - मोह, मन, वचन और काय की प्रवृत्ति के कारण जीवन के अंतरंग परिणामों में प्रतिक्षण जो उतार चढ़ाव रहता है उसे गुणस्थान कहते हैं । गुणस्थान के इस रूप में चौदह सोपान कहे गए है . १. मिथ्यात्व गुणस्थान
८. निवृत्तिबादर गुणस्थान २. सास्वादान गुणस्थान
९. अनिवृत्ति बादर गुणस्थान ३. मिश्र गुणस्थान
१०. सूक्ष्म संपराय गुणस्थान ४. अविरत सम्यक्दृष्टि गुणस्थान ११. उपशांत मोह गुणस्थान ५. देश विरत श्रावक गुणस्थान १२. क्षीण मोह गुणस्थान ६. प्रमत संयत गुणस्थान
१३. सयोगी केवली गुणस्थान ७. अप्रमत संयत गुणस्थान १४. अयोगी केवली गुणस्थान ।
आत्मा का मूल स्वरूप शुद्ध चेतनामय, शक्तिसंपन्न तथा आनंदपूर्ण होता है। कर्मों के आवरण दर्पण की धूलिपर्तो की भांति उस स्वरूप को ढंक देता है । इन आठ-कर्मों के आवरणों में सबसे सघन आवरण होता है - मोहनीय कर्म का । इसे सब कर्मों का
आध्यात्मिक विकास क्रम के चौदह सोपान - 159
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