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आध्यात्मिक अम्युदय के रूप में जो पुरुषार्थ करना है, जो पराक्रम दिखाना है, उसका अर्थ कर्म मुक्ति की दिशा में ही कर्मठ और पराक्रमी बनना है। इस विकास पथ का एक छोर कर्मबंध का है और दूसरा अंतिम छोर कर्म मुक्ति ।
आत्मा के मूल स्वरूप एवं कर्मबंध तथा कर्म मुक्ति के दोनों छोरों को भली भांति समझने के लिए आइये एक दृष्टान्त का आश्रय लें . “एक नया दर्पण है - बहुत स्वच्छ है. इसमें देखें तो आकृति एकदम हूबहू दिखाई देगी। फिर वह उपयोग में आने लगता है, उस पर धूल मिट्टी या चिकनाहट जमने लगती है । कभी बंद मकान में पड़ा रहता है और धूल मिट्टी की इतनी पर्ने जम जाती है कि उसमें प्रतिच्छाया तक दिखना बंद हो जाती है | इस तरह वह दर्पण अपने अर्थ में दर्पण ही नहीं रह जाता । इसी प्रकार आत्मा अनादिकाल से इस संसार में परिभ्रमण कर रही है । इसके स्वरूप पर उस दर्पण की तरह कर्मों का मैल लगता जा रहा है | अज्ञान एवं विकार की दशा में इस गर्त की पर्ते मोटी से मोटी चढ़ती जाती है और वे क्रमशः इतनी मोटी हो सकती है कि आत्मा के गुणों की ओर, उसकी शक्तियों की झलक तक दिखना बंद हो जाती है । आत्मा की इस स्थिति को हम उसकी पतितावस्था कह सकते हैं। किन्तु इस दृश्यहीन दर्पण को भी हम स्वभाव हीन नहीं मान सकते, क्योंकि उसका दृश्यत्व नष्ट नहीं हुआ है, बल्कि वह दब गया है । यदि पूरे मनोयोग और परिश्रम से उसे साफ करने का यत्न किया जाय तो वह फिर से यथापूर्वक साफ हो सकता है । सही ज्ञान, सही आस्था, एवं सही आचरण की सहायता से इस संसारी आत्मा पर लगे कर्म मैल को धोने का कठिन प्रयास भी किया जाये तो भावना एवं साधना की उत्कृष्टता से आत्मा को उनके मूल स्वरूप में अवस्थित कर सकते हैं.... पूर्ण निर्मल, पूर्ण सशक्त । इसीके साथ इस तरह कर्म मुक्ति के अंतिम छोर की उपलब्धि हो जाती है।
जैन दर्शन का कर्म सिद्धान्त मनुष्य को ईश्वर के सृष्टि कर्तृत्व अथवा भाग्यवाद के भ्रम से मुक्त करता है और उसे अपने भाग्य का स्वयं निर्माता होने का विश्वास दिलाता है । हम आज जो कुछ भुगत रहे हैं, अच्छा या बुरा निःसंदेह उसकी जड़े भूतकाल में
158 - अध्यात्म के झरोखे से
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