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आत्मा निखर कर ही जब अपने स्वरूप में पहुंच जाती है तो वह परमात्मा क
है । तब फिर इस परमात्मा का संसार से कोई संबंध नहीं रह जाता, सदा के लिए वह संसार से मुक्त हो जाता है । जितनी भी आत्माएं सिद्ध शिला पर मिलती है, वे ज्योति में ज्योति के समान एकाकार है ।
इसे ही आत्म विकास, आध्यात्मिक विकास का सोपान माना गया है, जिस तक पहुंचने के लिए कई सोपान पार करने पड़ते हैं । आत्म परिष्कार की उत्कृष्टता के साथ गतिक्रम आरोह की ओर बढ़ता है। किस समय आत्मशुद्धि का क्या स्तर है, उसकी कसोटी गुणस्थान के रूप में निर्धारित है ।
मूल स्वरूप में संसारी एवं सिद्ध आत्माओं में कोई अंतर नहीं है, जो अन्तर है, वह दोनों के वर्तमान स्वरूप में है । वह कर्मों की श्लिष्टता या संपृक्ति का है । जैन दर्शन के कर्म सिद्धान्त का निचोड़ यह है कि आत्मा का अजीव तत्त्व के साथ संयोग तथा उसका संसार में परिभ्रमण कर्म संलग्नता के कारण होता है । शरीर के साथ संबंध होने के बाद आत्मा की जिस रूप में शुभ अथवा अशुभ परिणति होती है, तदनुसार उसके शुभ अथवा अशुभ कर्मों का बंध होता है । इस तरह बंधे हुए कर्म भोगने पड़ते है तथा निरंतर सक्रियता के कारण नये कर्म भी बंधते रहते हैं । इस कर्मबंध को जहां एक ओर संयति जीवन से संवरित किया जा सकता है, वही दूसरी ओर निर्जरा के रूप में उनका उपशम एवं क्षय भी संभव है । जब संपूर्ण कर्मों का क्षय कर लिया जाता है, तब आत्मा को मोक्ष की उपलब्धि होती है । इस मोक्ष को हम कर्ममुक्ति पर आत्म-विकास का, आत्मोत्थान का सर्वोच्च सोपान कहते हैं, जो आत्मा को परमात्मा बनाता है ।
इस दृष्टि से वर्तमान आत्मस्थिति सांसारिकता है । अन्य शब्दों में कर्म संलीनता, उसकी इस हेतु विकास दिशा यही है कि वह कर्म मुक्ति की ओर पग उठाए और समग्र कर्म मुक्ति पर्यन्त सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र की आराधना में निमग्न रहे ।
जब तक कर्मबंध का क्रम चालू रहेगा, तब तक आत्मा संसारी आत्मा रहेगी एवं समग्र कर्म मुक्ति के बाद वह सिद्ध बन जायेगी । अतः आत्मविकास आध्यात्मिक विकास क्रम के चौदह सोपान 157
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