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- ध्यात्मिक विकास क्रम में गुण
। स्थान-चेतना के गुणों का विकास, जिसकी क्रमबद्ध स्वरूप चर्चा जैन दर्शन के अंतर्गत मिलती है। यह एक तार्किक व्यवस्था है। शुद्धिकरण का क्रम है । बंध हेतु पांच है - मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय, प्रमाद एवं योग । प्रथम गुणस्थान में बंध हेतुओं का अस्तित्व है। दूसरे से पांचवे गुणस्थान में मिथ्यात्वबंध हेतु की अनुपस्थिति तथा शेष चार, अव्रत, कषाय, प्रमाद एवं योग का अस्तित्व रहता है । छठे से, दसवें गुणस्थान में कषाय एवं योग दो बंध हेतुओं की उपस्थिति रहती है । ग्यारहवें, बारहवें एवं तेरहवें गुणस्थान में केवल-योग रहता है । चौदहवां गुणस्थानबंध हेतुओं के सर्वथा क्षय से ही उपलब्ध होता है । आध्यात्मिक विकास क्रम की चौदह भूमिकाओं का संग्राहक गुणस्थान है। ___आध्यात्मिक विकास चर्या चेतना से संबंधित है । अतः चेतना के विशुद्ध स्वरूप के आधार पर आध्यात्मिक साधना में अनुरक्त साधक के कुछ श्रेणियों, अवस्थाओं का उल्लेख मिलता है । जैसे सुलभबोधि, मार्गानुसारी, सम्यग्दृष्टि श्रमणोपासक, संयम आदि. आत्मा ही परमात्मा बनती है। परमात्मा
की विशिष्ट रूप में कोई पृथक सत्ता नहीं है । 156 - अध्यात्म के झरोखे से
N_आध्यात्मिक विकास क्रम के चौदह सोपान
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