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शब्द तो सारे कोषों में और ग्रन्थों के अन्दर होते है । मनुष्य की तपस्या उनमें अर्थ और ताकत भर देती है । एक ही शब्द का इस्तेमाल हम सभी करते हैं लेकिन राजा के मुख से निःसृत होने पर वह राजाज्ञा बन जाती है, साधु की वाणी उसने धर्माज्ञा बना देती है, वैज्ञानिक की शब्दावली उसे विश्वजनीन संदर्भ दे देती है । एक साधु का अनुभव जगत-अतजगत की यात्रा का होता है । द ग्रेटेस्ट इस दी जर्नी विदीन'' कहकर अन्तर्यात्रा के महत्त्व को साधु जगत ने सराहा है ।
नितांत पारदर्शी, सत्यान्वेषी, आत्मबल सम्पन्न और पवित्र आत्मा को ही अन्तर्नाद सुनाई देता है । यह कभी गांधीजी ने अपनी अनुभव यात्रा के साररूप में कहा था । आज भौतिक कोलाहल के इस विलासमय माहौल में अन्तर्वीणा के स्वरों को सुनने की योग्यता हमारी रह ही कहाँ गई है ? ऐसी विषम परिस्थिति में महामानव आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी एक तीव्र प्रकाश शलाका बन हमारे बीच मौजूद है एवं जीवन को जीवन के ढंग से जीने की जो दिशा दे रहे है, यह हम सबके लिए अहोभाग्य है।
उनकी महत्त्वपूर्ण कृति “अध्यात्म के झरोखे से' देखने पढ़ने का मुझे अवसर मिला. एक मनीषी, लेखक, पारंगत वक्ता, उत्कृष्ट मनीषी एवं स्वस्थ विचारक चिन्तक के नाते उनकी मान्यता निश्चित ही किसी घेरे में आबद्ध नहीं की जा सकती । उनकी रचना का हार्द मनुष्य की चेतना है | धर्माचरण से युक्त, शुद्ध, बुद्ध मनुष्य उनकी चिन्ता और चिंतन का विषय है । उन्होंने मानव धर्म, आत्मधर्म को सर्वोपरि धर्म माना है ।
14 - अध्यात्म के झरोखे से
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