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दार्शनिक चिंतन के दो प्रकार है - बाह्य चिंतन के आधार पर अन्तर की चिंतन भूमि में प्रवेश और दूसरा प्रकार है आंतरिक चिंतन शक्ति के आधार पर बाह्य जगत के जाल-जंजाल में प्रवेश । इनमें से पहला प्रकार भारतीय दर्शनों का रहा है और दूसरा प्रकार पश्चिम में विकास पा रहा है। उस प्रकार को हम विज्ञान कह सकते हैं । यहीं से दर्शन और विज्ञान के मार्ग भिन्न-भिन्न हो जाते हैं । दर्शन आंतरिक ज्ञान शक्ति का आश्रय ग्रहण करके चलता है, अतः वह जन्म मरण आदि की सूक्ष्म विवेचना के द्वारा जीवन के गहनतम रहस्यों को प्राप्त कर लेता है। किन्तु वैज्ञानिक प्रयोग नित्य बदलते रहते हैं क्यों कि उसी बाह्य जगत के चरम तत्त्व की प्राप्ति प्रयोगों द्वारा संभव नहीं होती । ___इतना अवश्य है कि वैज्ञानिक प्रयोग जन-मानस को शीघ्र ही अपनी ओर आकृष्ट कर लेते हैं, जबकि पूर्ण सत्य तक पहुंचा हुआ दार्शनिक जीव और जगत के मूल रहस्य को पाकर ही कृत-कृत्य होता है ।
विज्ञान ने जिस भौतिकतावाद की चकाचौंध को जन्म दिया है उसके कारण आज का मानव अन्तर्द्रष्टा साधक न रहकर बहिर्द्रष्टा बन गया है। अतः वह सब कुछ पाकर भी दुःखी है, परितप्त है, अशान्त है । अतः शान्त जीवन के लिए अन्तर्मुखी चिन्तन मनन पूर्वक दार्शनिक दृष्टिकोण को अपनाने की आवश्यकता असंदिग्ध है ।
भगवान महावीर ने साढे-बारह वर्षों तक साधना करके अपने श्रुत ज्ञान को प्रत्यक्ष करके देखा और सृष्टि के रहस्यों का पर्दा उठाते हुए जो मूल तत्त्व प्रदान किये हैं कुल मिलाकर उन्हें ही नव तत्त्व कहा जाता है । चौदह-पूर्वो का सार नव तत्त्व हैं और नव तत्त्वों की व्याख्या है - द्वादशाङ्गी गणिपीटक ।
मुख्यतः विश्व के मूल में अनादि तत्त्व दो है-जीव तत्व और अजीव तत्व अर्थात् जड़ सत्ता और चेतन सत्ता | बाह्य शक्ति और अन्तरशक्ति । दोनों शक्तियां अनादि है एवं सर्वथा स्वतन्त्र है। जीव से अजीव के या अजीव से जीव के, जड़ से चेतन और चेतन से जड़ का विकास का सिद्धांत जैन-दर्शन को कतई मान्य नहीं है, यही एक कारण है कि वह चिन्तन के क्षेत्र में नाना अव्यवस्था दोषों से मुक्त रहा है।
140 - अध्यात्म के झरोखे से
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