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हैं, उस समय वह न त्याज्य है और न ग्राह्य है । धर्म की साधना के लिए मनुष्यत्व, आर्य क्षेत्र उत्तमकुल, निरोगता, दीर्घायु, इन्द्रियों की पूर्णता, उत्तम संहनन, उत्तम संस्थान और श्रमण निर्ग्रन्थों की संगति इन सबका अपना-अपना विशिष्ट स्थान है । साधना आराधना की रुचि पुण्य के बिना प्राप्त नहीं होती । अतः इस पुण्य भूमिका को पाने के लिए पुण्य उपादेय भी बन जाता है। पुल के अभाव में जब किसी यात्री को नाव के द्वारा महानदी को पार करना हो तो पहले वह नौका उपादेय होती है, मध्य में न हेय और न उपादेय होती है किन्तु पार पहुंचने पर वही नाव यात्री के लिए हेय बन जाती है । पुण्य की स्थिति भी नाव के समान है, वह कभी हेय होता है, कभी उपादेय होता है और कभी न हेय होता है, न उपादेय होता है ।
नव तत्त्वों में पुण्य, पाप, आस्रव और बन्ध ये चार तत्त्व रूपी एवं मूर्त है । संवरनिर्जरा और मोक्ष में तीन अरूपी है । जीव का वास्तविक स्वरूप तो अरूपी है किन्तु शरीर इन्द्रियां और मन आदि पौद्गलिक होने के कारण जीवनरूपी भी है। अजीवतत्त्व के पांच भेद हैं- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल और पुद्गलास्तिकाय । इनमें केवल पुद्गलास्तिकाय ही रूपी है, शेष सभी अरूपी हैं ।
नव तत्त्वों में जीव ही एक ऐसा तत्त्व है - जिसमें मोक्ष प्राप्त करने की शक्ति है । संवर और निर्जरा मोक्ष प्राप्ति के साधन है । शेष तत्त्व संसार-मार्ग के सहायक है । निश्चय दृष्टि से जीव और अजीव ये दो ही तत्त्व है । शेष सात तत्व जीव और अजीव की पर्याय है । गीली मिट्टी से जैसे गोली बनती है, वैसे ही जीव और अजीव के संयोग एवं वियोग से सात तत्त्व उत्पन्न होते हैं । सिद्ध भगवान आठ कर्मों से सर्वथा मुक्त हैं, इस कारण वे अरूपी है । साधक का मुख्य साध्य मोक्ष है । उस मोक्ष को और मोक्ष के साधनों को जाने बिना कोई भी साधक कभी भी मोक्ष मार्ग में प्रवृत्ति नहीं कर सकता । यह भी सत्य है कि साधक मोक्ष के विरोधी तत्त्वों और उनके कारणों का स्वरूप जाने बिना भी अपने मोक्षपथ पर पूर्णतः प्रगति नहीं कर सकता अतः अध्यात्मका पथ, मोक्ष पथ को प्रशस्त करने के लिए आप्तों द्वारा प्रतिपादित तत्त्व को सम्यक् प्रकार से समझना चाहिए ।
आध्यात्मिक दृष्टि से तत्त्व मीमांसा 139
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