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सत्य सदैव एक समान रहता है, किन्तु असत्य बदलता रहता है । सत्य स्वयं प्रकाशमान है, असत्य को प्रकाशित करना पड़ता है। इसी अपेक्षा से तत्व को तथ्य भी कहा जाता है। जिसके द्वारा परम और चरम लक्ष्य को जानकर भौतिकता से निवृत्ति और आध्यात्मिकता में प्रवृत्ति हो, वह परमार्थ है, जिस तत्व में सभी भावों का अन्तर्भाव हो जाता है उसे पदार्थ कहा जाता है। जैसा कि प्रारंभ में स्पष्ट किया जा चुका है, कुल मिलाकर तत्त्व नौ हैं।
आगम शास्त्रों में नौ तत्त्वों के वर्णन का ही विस्तार है । कहीं कहीं पुण्य और पाप को आश्रव पर बन्धत्व में समाविष्ट करके मूल तत्त्वों की गणना सात ही मानी गई है किन्तु स्पष्टता की दृष्टि से नव तत्व की स्वीकृति को ही विशेष मान्यता प्राप्त हुई है ।
इन नौ तत्त्वों में कौन तत्त्व हेय, ज्ञेय और उपादेय है यह बोध भी कर लेना आवश्यक है । हेय का अर्थ त्याज्य अर्थात् छोड़ने योग्य है । पाप, आश्रव और बन्ध ये तीन तत्त्व जानने योग्य तो है किन्तु आचरणीय नहीं अपितु अनाचरणीय है अतएव हेय अर्थात् त्याज्य है । इनका संग साथ स्वभावत्व में विकृति का सूत्रपात करता है |
जीव, अजीव और पुण्य ये तीन तत्त्व उपादेय अर्थात् ग्राह्य है । जो कुछ हम पढ़ते सुनते अथवा जानते हैं उसमें से कुछ बातें जेय होती है, कुछ हेय होती है तो कुछ उपादेय होती है । विवेक-सम्पन्न, ज्ञान-सम्पन्न वही है जो उपादेय है उसे ग्रहण कर ले । हेय का त्याग और उपादेय का ग्रहण जीव को विकास देता है। ज्ञेय पदार्थो को जानने से जीवन में विवेक का उदय होता है ।
पुण्य को लेकर कई तरह की विचारधाराएं विकसित हुई है, पर कोई भी विचारधारा जब एकान्त आग्रह के रूप में विकसित होती है तो कई तरह की विसंगतियां, कई तरह की गड़बड़ियाँ खड़ी होने लगती है। जैन दर्शन, वीतराग दर्शन में एकान्त आग्रह को कोई स्थान नहीं है । वीतराग दर्शन अनेकांत में विश्वास व्यक्त करता है।
जिस भूमिका पर हम जीते हैं, वहाँ एकान्ततः पुण्य को नकार कर चलना, भूल भरा दृष्टिकोण है । पुण्य को सर्वथा रूप से नकारने के बाद शेष रह ही क्या जाता है। चौदहवें गुण स्थान में पुण्य जरूर हेय रूप है, पर साधना काल में पुण्य तत्त्व ज्ञानरूप 138 - अध्यात्म के झरोखे से
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