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जैन दर्शन ने जीव को ज्ञान दर्शन एवं चेतना स्वरूप मान कर इसको ऊर्ध्वगमन स्वभाव वाला माना है । आगमों में जीव के लक्षण के सम्बन्ध में स्पष्ट उल्लेख है -
नाणं च दंसणं चेव, चारितस्स तवो तहा ।
वीरियं, उवओगो अ, एवं जीवस्स लक्खणं ॥ जीव मात्र का लक्षण, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग सम्पन्न हैं । पुण्य पाप आदि के कारण जीव देव, मनुष्य नरक एवं तिर्यंच आदि गतियों में अनंत काल से परिभ्रमण कर रहा है । "जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगाणि मरणाणि य'' अथवा “पुनरपि जन्म पुनरपि मरणं' का मूल कारण आत्मबोध का अभाव है । आत्मबोध से जुड़कर चलने पर भव भ्रमण का अवसान एवं आध्यात्मिक दृष्टि से जीवन का उत्थान सुनिश्चित है।
आध्यात्मिक दृष्टि से तत्त्व मीमांसा - 141
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