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भोग मनुष्य को जीर्ण शीर्ण बना देता है । भोग में फंसा व्यक्ति यौवन काल में ही वृद्धत्व का अनुभव करता है । फूल खिलते हैं पर यदि वातावरण में ताप फैलता है तो वे ही फूल मुर्झाने लगते हैं । इसी तरह जो मनुष्य प्रशांति के वातावरण में स्थित है वह संयम की ओर अग्रसर होता है। भगवान महावीर का कथन है
पुढवी साली जवाचेव, हिरण्णं पसुभिस्सह । पडिपुण्णं नालमेगस्स, हइ विज्जा तव चरे ॥
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चावल और जौ आदि धान्यों तथा स्वर्ण और पशुओं से भरी है यह धरती, किन्तु यह भी लोभी मनुष्य को तृप्त करने में असमर्थ है, यह जानकर संयम का ही आचरण करना चाहिए ।
संयम का आचरण करने के लिए प्रलोभनों से दूरी अति आवश्यक है । मनुष्य को अपनत्व का भान और ज्ञान होना चाहिए । उसके लिए विमोह की प्रवृत्ति बलवती होना जरूरी है । ममत्व से ही प्रलोभ या स्वार्थ की उपज होती है, अतः ममत्व का परित्याग भी जरूरी है ।
अपार धन वैभव भी और और की चाह वाले मनुष्य को संतोष दे ही नहीं पाता । संयम से व्यक्ति को चाह से छुटकारा मिलता है, उसमें संतोष का भाव प्रबल होता है । चाह की इच्छा की कोई सीमा नहीं होती । जहाँ सीमा ही नहीं है वहाँ किस रेखा किस बिन्दु पर इति हो, विराम हो तय कर पाना सहज नहीं हो पाता है । ऐसे में निरंतर ऊर्जा क्षीण हो जाती है । सारे सुख जो अमृत तुल्य लगते थे वो विष के समान हो जाते हैं । प्रकाश की जगह अंधकार आ जाता है। तब मनुष्य की प्यास को और अधिक उभर उठने का अवसर मिलता है और वह एक लंबी तृष्णा के घेरे में आ जाता है। वैभव ऐश्वर्य की कोई भी परिसीमा तक व्यर्थ लगती है। धैर्य के अभाव में पीड़ा का अनुभव ओर भी गहरा हो जाता है. संयम का मार्ग कंटको से भरा है फिर भी उस मार्ग पर जानेसे संतोष धैर्य तृप्ति की उपलब्धि हो जाती है । जीने की शर्त है कि व्यक्ति अपने को योग्य सीमाओ से आबद्ध करें। हिंसा से, असत्य से, संचय से, चोरी से, अब्रह्मचर्य प्रवृत्ति से विलग रखे, तभी शांति और सद्भाव का वातावरण संयम का अर्थ है - आध्यात्मिक शक्ति - 125
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