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कहें कि वह औरों के दोष ही अधिक देखता है, बात-बात में मीन मेख निकालता है । इस कार्य में मन लिस रहता है | वह निरन्तर उसे ही सत्य साबित करने में प्रवृत्त रहता है । जो वह करता है वह कभी भी स्वयं को स्वयं की जांच करने का अवसर नही देना चाहता । विडम्बना ही है कि मन अन्तर्मन की यात्रा से निरन्तर परहेज रखता है।
आचारांग के एक सूत्र के अनुसार - मण परिजाणव से णिग्गंधे अर्थात् जो अपने मन को अच्छी तरह परखना जानता है, वही सच्चा निर्ग्रन्थ है। मन की परख का यह सूत्र साधु के साथ ही गृहस्थ के लिए भी उतना ही जरूरी है। आचार्य हेमचन्द्र ने मन की चार अवस्थाएँ बतलाई है।
(१) विक्षिप्त मन : चंचल विषयों में भटकता हुआ मन (२) यातायात मन : इधर-उधर दौड़ता हुआ मन (३) श्लिष्ट मन : भीतर स्थिर हुआ मन
(४) तुलीन मन : आत्मानुभव में अत्यन्त लीन मन __ मन की विभिन्न अवस्थाओं का बड़ा सूक्ष्म-संदर्भ प्रस्तुत है । विक्षिप्त अवस्था में मन अपनी मूल प्रवृत्ति का परित्याग कर देता है और उस पर अन्य अनेक प्रभाव आ जाते है वे प्रभाव बहु आयामी होते हैं इसलिए उनमें चंचलता आना स्वाभाविक है | उसीके चलते मन यातायात में प्रवृत्त होता है । वह यात्रा प्रारम्भ करता है। मन की यह यात्रा चांचल्य के कारण इधर-उधर के भटकाव में चलती है। जब मन स्थिर हो जाता है तब वह लिष्ट हो जाता है, संयम हो जाता है। स्थिरता और एकाग्रता के द्वारा वह तल्लीनता पाता है और लक्ष्य पाता है। एक लक्ष्य पाकर वह उस पर स्थिर रहकर भीतर की यात्रा प्रारम्भ करता है।
बहुधा व्यक्ति स्वयं के दोष कम और अन्यों के अधिक देखते हैं यही कारण है कि श्रेष्ठताओं से वंचित रहना पड़ता है। रेल से एक यात्री यात्रा कर रहा था। उसके पास बहुत सारा धन था । उसे यह आभास हो गया था कि उसका एक सहयात्री
मन में, स्वच्छ हवाओं को प्रवेश दें - 119
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