SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रबुद्ध जैन इसीलिए तो आज की स्थिति को देखकर कहते हैं कि आज की सारी समस्याओं का निदान जैन दर्शन के पास है । जैन विचार प्रणाली को व्यवहार में लाकर ही सारी समस्याओं से छुटकारा पाया जा सकता है | भले ही वह मौसम की प्रतिकूलता हो या मानव के व्यवहारों में प्रविष्ट हुई विकृति । मनुष्य के जीवन में जितने भी सुख-दुःख उतार चढ़ाव आते है वे कृत कर्मों के फल हैं, शुभकर्मों के फल शुभ, अशुभ कर्मो के फल अशुभ होते हैं । वे लोग धन्य हैं जो उत्तम व्यवहारों का जीवन में पालन करते है। जैन दर्शन में वनस्पति, आहार जल सेवन, जीवनयापन हर क्षेत्र में शुद्धि की नियोजना है । ये चार शुद्धि है - द्रव्य शुद्धि, क्षेत्र शुद्धि, काल शुद्धि, भाव शुद्धि । इनके परिपालन से पर्यावरण को बल मिलता है । जैन शास्त्रों में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति को जीव बताया गया है | इनके प्रति अविचार से वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण ताप प्रदूषण की स्थिति आ जाती है । जैन संतों आचार्यों, तीर्थंकरों द्वारा अन्तर्जगत और बहिर्जगत की शुद्धि का उद्बोध दिया गया है । जैन धर्म का मुख्य उद्घोष अहिंसा है। शेष व्रत अर्थात् अपरिग्रह, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, सत्य भी इसी में निहित हो जाते है। मनुष्य अपने विषय सुख के लिए प्रकृति का शोषण करता है, दोहन करता है । इसीके चलते वह जीवात्माओं के प्रति क्रूर हो जाता है, निर्मम हो जाता है । मनुष्य की क्रूरता या निर्ममता उसे ओरों के प्रति हिंसक होने के लिए उकसाती है। उसकी करुणा समाप्त हो जाती है । वह धर्म के कथनों से व्यवहारों से विमुख हो जाता है। उसकी आत्मा में अनेक प्रकार के प्रभावों का प्रवेश हो जाता है। आत्मा की विशुद्धता पर अवरोध आ जाता है | बड़ी सहजता से वह मद्य, मांस, असत्य, चौर्य, कुशील का सेवन करने लगता है । अन्यों की धन-हानि, स्त्री-हानि आदि की कामना में सुख का आभास होने लगता है। विजय का विष मनुष्य को ललचाता रहता है। मोक्ष की कामना से वह परे हो जाता है । मदिरा का सेवन उसे और अधिक भटकाता है। ___ मनुष्य की क्रूरता कुचेष्टा है। परिवेश को भयाक्रांत, अशांत-हिंसक बनाती है। विकार को दूर करना बड़ा ही कठिन है । प्रवृत्ति का यही स्वरूप पर्यावरण अशुद्ध पर्यावरण का अर्थ : जीवसृष्टि एवं वातावरण की पारस्परिकता – 113 For Private And Personal Use Only
SR No.008701
Book TitleAdhyatma Ke Zarokhe Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year2003
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Spiritual
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy