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आत्मस्वरूप में रमण करना ही साधक का लक्ष्य होना चाहिए। आत्म-स्वरूप में रमण ही भव भ्रमण पर विराम लगाता है।
आज सबसे बड़ी विडम्बना यही है कि हम आत्मा के वश में न होकर कामनाओं के वश में हो जाते है । यह ऐसी वशमयता है जो मनुष्य को परवश बना देती है | यह अवशता, यह परवशता कदम-कदम पर तोड़ती है, पूरा का पूरा जीवन लड़खड़ा जाता है । आप अपने ही वश में, नियंत्रण में रहना ही, ज्यादा लाभप्रद होता है । एक बार मैंने लिखा था -
वश में रहे आत्मा के, सार्थक है वह जीवन कामना के वश में जो जाता नहीं संजीवन भटकाव का अंत पर के परित्याग से होगा
आत्मा में रमे जो आनंद पाता यावज्जीवन ! यह स्पष्ट है कि कामनाओं में आकर्षण रहता है, उसीमें मनुष्य इसका अनुभव करता है, पर यह रस नहीं है अपितु घातक विष है । ऐसा विष जो न केवल एक जन्म, अपितु जन्म-जन्म तक अपने दुष्परिणाम प्रस्तुत करता रहता है । यह कभी भी नहीं भूलना चाहिए कि कामनाओं में भटकाव ही अधिक होता है । उनमें उलझाव है, उद्वेलन है, शांति नहीं अपितु स्पष्टता अशान्ति है । इनके अल्पीकरण अथवा अंत के बिना शांति और सुख संभव नहीं है । कहा है .
चाह गई, चिन्ता मिटी, मनवा बेपरवाह ।
जिसको कछु न चाहिए, वो ही शहनशाह ॥ यों प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी चाह और कामना से जुड़ा है, वह उससे तुरन्त चाहकर भी अलग नहीं हो पाता, पर इतना तो किया ही जा सकता है और करना भी चाहिए कि कामना को ऐसा स्वरूप दिया जाए कि वह उसे पीड़ा न दें, भटकाव न दे। कामना को ऐसी उज्ज्वलता दे कि उसमें स्वार्थ की बू न आए, उसमें आसक्ति का परिदर्शन न हो । कामनाओं कि विशुद्धि का अभिप्राय उस पर पड़े मैल को हटा दे, तब 102 - अध्यात्म के झरोखे से
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