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पर ही मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है । मुक्ति त्याग का चरम है। त्याग का यहां अर्थ है - अखण्ड आनंद की अनुप्राप्ति । यह आनंद पूर्ण रिक्तता की स्थिति में संभव है। उस हालत में रिक्तता की अनुभूति पीड़ा नहीं देती है । आचारांग में कहा है -
“विमुत्ता हुं तो जणा, जे जणा पारगामिणो।" जो साधक कामनाओं को पार कर गए हैं, वस्तुतः वे ही मुक्त पुरुष है । कामना विहीनता से ही मनुष्य को आत्मा से, अध्यात्म से जुड़ने की एकाग्रता मिलती है। मुक्ति का पथ भी आत्मा के, अध्यात्म के संधान से ही प्रशस्त होता है । पूर्ण प्रशस्ति के लिए पूर्ण संतुलन जरूरी है। संतुलन की प्राप्ति होती है आध्यात्मिक निष्ठा से । संतुलन की प्राप्ति होती है एकाग्रता से । आंतरिक भटकाव, अध्यात्मसाधना में बाधक है । भटकाव से विमुक्ति दृढ़ इच्छा-शक्ति से, आत्मबल से संभव है । कामनाओं पर तर्क के लिए विचारों की तटस्थता एवं स्वस्थता को अपनाईये । यह स्वस्थता एक प्रकार से व्यक्तित्व के परिवर्तन को घटित करती है। कामना किसी भी तरह की नहीं हो । लोक की अथवा परलोक की, कामना कैसी भी हो, वह बाधक है। साधक सहज रूप से अपने आपसे जुड़कर जीवन को साधना के स्तर पर जीने के प्रयास करें । यह सहजता, अध्यात्म से संलग्नता पर सधती है। इस आध्यात्मिक संलग्नता से जीवन में वह स्थिति आ जाती है कि उसके बाद फिर कुछ भी समझने की, जानने की या प्राप्त करने की जरूरत ही नहीं रहती है। साधना की सततता से यह संभव हो जाता है। श्रेष्ठ की इस यात्रा से जीवन का ऊर्वारोहण सुनिश्चित रूप से होता है । कहा भी है -
विणावि लोगगं निक्खम्भ,
एस अकम्म जाणाति पासति । ___ जिस साधक ने बिना किसी लोक-परलोक की कामना के निष्क्रमण किया है, प्रव्रज्या ग्रहण की है, वह अकर्म अर्थात् बन्धन मुक्त होकर ज्ञाता-द्रष्टा हो जाता है । समग्र को जानकर भी यह वैचारिक परिग्रह नहीं है, वरन् आत्मा का अनुग्रह है |
कामनामुक्ति का उपाय : साक्षीभाव - 101
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