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सुपारस शरण दियो, दास बचावो, वृद्धिगंभीर दिल धारणिया.
भक्तिमार्ग प्रकाश पा. ११३
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वृद्धिगंभीर आशा पूरो, देतां नहीं तुम खामी,
ते विण करणी न आवे कामे, तिणे मागुं शिरनामी, भक्तिमार्ग प्रकाश पा. १४६ "
जेवी पंक्तिओ रसपरिपूर्ण भावथी ओतप्रोत अने षोडशकमां व्याख्या बांधी छे तेवा समस्त गुणोवाळी गंभीर शब्दार्थ चमत्कृतिवाळी लागे छे तेमां रागदशाजन्य पक्षपात सिवाय अमने बीजुं कारण वास्तविक लागतुं नथी.
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आ उपरथी अमे पंन्यास गंभीरविजयजीनी कृतिने कोइ रीते उतारी पाडवा मागता नथी. ए कृति पण एकंदर उपकारक छेज. पण अत्र अमे जे देखाडवा मागीए छीए ते एटलुंज के सामान्य प्राकृत जनोने अर्थनी मुश्केली पडे तेवी, भाषा विषयक कंइक जूनी दवाळी पंन्यासजीनी कृति करतां सरळ अर्थवाळी प्रभुनुं शरण मागती, प्रभुनी सहाय विना जीवनी बेहाल दशानो इसारो करनारी, संसारना उद्वेगोनुं वर्णन करती, संसारमां भावशत्रुओना थता व्याघातोनुं दिग्दर्शन करनारी, उपरनी सूरिश्रीनी कृति तथा तेवीज बीजी सेंकडो कृतिओनी उपयोगिता प्राकृत जनो के जेनी संख्या अप्राकृतजनो करतां अनेक गणी छे तेओने माटे ओछी तो नथीज.
जे छटा सूरिश्रीनी रचनामां छे तेवीज प्राचीन रचनाओमां पण अनेक स्थळे जगाइ आवे छे. जे नीचेनी पंक्तिओ उपरथी जणाशे. तार हो तार प्रभु मुज सेवक भणी, जगतमां एटलं सुजश लीजे, दास अवगुण भर्यो, जाणी पोतातणो, दयानिधि दीनपर दयाकीजे.
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श्रीमद् देवचंदजी.
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