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आवजोरे" आवा स्तवनादि मंदिर विगेरेमा पूजन समये गाइने पोतानो समय पूर्ण करे छे. अतएव षोडशकमां श्रीमान् हरिभद्र मूरिश्रीए "वैराग्यपूर्ण आत्मनिंदात्मिका अने वीतराग गुणबोधक एवं विविध अलंकार साथे शब्द अर्थनी गांभीर्यतामय रसोत्पादक स्तोत्र स्तवनादि जिन प्रतिमाग्रे गावानुं" कहुं छे. __आमां उपरनी चर्चावाळी कृति तेमने निरसपाय लागती होय तो तेमां तेमना रुचिभेदतुं कारण कल्पी शकीए पण ज्यारे तेओ तेमां अर्थशून्यता निहाळे छे त्यारे अर्थात् तेनी शब्द रचनामां अर्थोत्पत्ति वा अर्थनी सुसंगतिनो अभाव छे एवो पडकार करे छे, त्यारे तो खास सूरिश्रीनी कृतिने कोइ पण रीते उतारी पाडी चोक्स आशय सिद्ध करवानो तेमनो इरादो तरी आवे छे वा तेमन अज्ञान स्फोटन थाय छे. वळी उपरना स्तवनने कविताना ढंग वगरनुं कही पोताने राग ना बेसतो होय तेथी द्राक्ष मळवानी शक्तिना अभावे द्राक्षने खाटी कहेवानी जनश्रुतिने चरितार्थ करवा जेवू कयु छे. गणिजीनो आ श्रम भक्तिमार्ग प्रकाशांतर्गत पंन्यास गंभीरविजय गणिकृत स्तवनादिक अत्यंत भावपूर्ण, रसवाळां, कविताना मापतालवालां अने हरिभद्रसूरिसंमत रहस्यवाळां टुंकामां सर्वगुण संपन्न सिद्ध करवाना उत्साहमां मननुं समतोलपणुं गुमाववामां सहायभूत थयो छे एम सिद्ध थाय छे. गणिजीने
“त्रिशलाना जायारे महावीर सहाये आवजोरे" इत्यादिक पंक्तिओ निरस, अर्थशून्य अने निरर्थक समय पर्ण करवा जेवी लागे छे त्यारे तेमना गुरुश्री पंन्यास गंभीरविजय गणिजीना स्तवनादिमां रहेली
तारो तारो पद्मप्रभु तारोरे दीनानाथ निहालिए वृद्धिगंभीर हशे सब पीडा, सेवक आपने उगारीएरे
भक्तिमार्ग प्रकाश पा. १०८
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