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दीनबंधुनी महिर नजरथी आनंदघनपद पावे हो मल्लि.
श्रीमद् आनंदघनजी. श्री मुनिसुव्रत कृपा करो तो आनंदघन पद लहिये.
श्रीमद् आनंदघनजी. सिद्धारथनारे नंदन विनg-ए आलुं स्तवन." .इत्यादि संख्याबंध कृतिओ गणिजी तपासशे तो समान कक्षावाळी मळी आवशे.
__ आ सघळी कृतिओ तथा उपरनी मूरिश्रीनी कृति हरिभद्रमूरिना षोडशक प्रकरणना नवमा षोडशकना ६-७ प्रलोकना कया भाव साथे बंधबेसती नथी ते गणिजीए दर्शाक्वानो सहेज पण प्रयत्न कर्यो नथी. अमे तो उपरनी सरिश्रीनी कृति अगाउ जणाव्यु तेम प्रभुनी सहाय मागती, संसारमा भावशत्रुओना थता व्याघातनुं दिग्दर्शन करनारी, तथा संसारना दुःखोथी त्रस्त थयेला जीवनी प्रभुनी सहाय विना बेहालदशा थवानी संभावना करनारी होइ आ कृतिमां षोडशकगत लोकना " आशयविशुद्धिजनक" "संवेगपरायण" " पुण्यपापनिवेदनगर्भ" इत्यादिक विशेषणोने यथा साध्य सार्थक करनारी छे एम निःसंकोच भावे जणावीए छीए.
अमे आ कृतिना आध्यात्मिक रहस्यने आ स्थळे छोडवू इष्ट गणता नथी, कारणके गणिजी उक्त कृतिना सामान्य अर्थने पण प्रतिपन्न नथी करी शकता तो तेमनी साथे तेना आध्यात्मिक अ. र्थ विशिष्टतानी वातो करवी ए वधु पडतुंज गणाय, पण गणि. जीने अत्र एक वातनुं खास दिग्दर्शन करावीए छीए के शकस्तवमा इंद्र पण प्रभुनी स्तुति करती वखते "शरण दयाणं " "तारयाणं" इत्यादि विशेषणोनो उद्घोष करे छे तेज उद्घोषोनो जमानानी अने गुजराती भाषानी ढबे विस्तार होय तेने जोइए ते करतां वधु उपयोगितानो भार मूकवानो तेमन रुचिभेद परत्वे उपयोगितानी
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