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करुणा के सागर
आचार्यश्री की सच्ची पहचान यह नहीं कि उन्होंने कई जिनमंदिरों की स्थापना करवाई, उनकी सच्ची पहचान यह भी नहीं कि उन्होंने कई उपधान तप करवाए अश्या उपाश्रय आदि बनवाए, यह सब कुछ तो उनके कार्यों से उनकी पहचान है । उनकी वास्तविक पहचान तो उनके विरल व्यक्तित्व के परिचय में है ।
सागर का सच्चा परिचय सागर के किनारे से नहीं मिल सकता, उसके लिए उनकी गहराई में उतरना पड़ता है । सागर के किनारे छीप अवश्य मिल सकती है, परन्तु मोती नहीं मिल सकते। उसी प्रकार व्यक्ति की पहचान भी बाहर से नहीं, उसके अंतर-जोवन से होनी चाहिए । परन्तु आचार्यश्री तो जैसे अंतर से थे वैसे ही बाहर से भी थे । उनका अंतर मन जितना निर्मल और करुणामय था उतना ही उनका बाहरी व्यवहार भी। वे अंदर और बाहर समान थे । हर व्यक्ति के प्रति उनका व्यवहार अंदर और बाहर से एक समान होता था ।
विहार और चातुर्मास
अपने संयम जीवन के ४७ वर्षों के दौरान पृज्य आचार्यश्री ने गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार, चंगाल और महाराष्ट्र आदि प्रान्तों में विचरण कर मानव के अंधकारमय जीवन को आलोकित करने का अथक पुरुषार्थ किया
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