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________________ मुनिश्री ने धीरे से कहा 'मैं तो अब वृद्ध हो चुका हूँ । एक-दो वर्ष मुश्किल से जी सकूंगा । मूर्तिपूजा विरोधी मान्यता का प्रतिकार करना अब मेरे लिए संभव नहीं है । ऐसा करने से हमारे समाज में मेरे प्रति द्वेष उत्पन्न होगा । मेरी आत्मिक शांति नष्ट हो जाएगी । इस दलते जीवन में अब वेकार अशांति उत्पन्न कर मैं क्या करूं? मैं चाहता हूँ कि मेरे ये अंतिम दिन शांति से गुजरें, इसीलिए मैं अपने इसी समाज की मान्यताओं के अनुसार जीवन पूर्ण कर रहा हूँ ।' · सत्यं शरणं गच्छामि मुनिश्री की बात सुनकर काशीराम दंग रह गए । उसी दिन उन्हें अपनी अज्ञान मान्यता का आभास हुआ । वे मन ही मन स्वयं को धिक्कार रहे थे । क्यों कि उन्होंने अपनी अज्ञानावस्था में मूर्ति को पत्थर कहकर जिनेश्वर परमात्मा की घोर आशादना की थी । उन्हें लगा कि वास्तव में में आज तक मूर्ख बना रहा, आज इस पुस्तक ने मुझे सत्य के दर्शन कराए हैं । उन्होंने उसी वक्त प्रतिज्ञा ली कि आज से वे कभी मूर्तिपूजा का विरोध नहीं करेंगे । सत्य के चाहक को सम्प्रदाय के बंधन कभी अवरोध रूप नहीं बन सकते और सत्य के उपासक इस प्रकार के बंधनों को गिनते भी नहीं है । प्रारम्भ से ही दांभिक जीवन के प्रति काशीराम को नफरत थी । उन्हें दम्भ और कपट तनिक भी पसन्द नहीं था । उन्होंने मूर्ति १६
SR No.008597
Book TitleKailashsagarsuriji Jivanyatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandsagarsuri, Sagaranandsuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year1985
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati & History
File Size1 MB
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